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भोजन का ठिकाना न था, वहाँ दवा का जिक्र ही क्या? दिन-दिन सूखती चली जाती थी।

एक दिन रुक्मिणी ने कहा-बहू, इस तरह कब तक घुला करोगी, जी ही से तो जहान है। चलो, किसी वैद्य को दिखा लाऊँ।

निर्मला ने विरक्त भाव से कहा—जिसे रोने के लिए जीना हो, उसका मर जाना ही अच्छा।

रुक्मिणी-बुलाने से तो मौत नहीं आती?

निर्मला-मौत तो बिन बुलाए आती है, बुलाने में क्यों न आएगी? उसके आने में बहुत दिन लगेंगे बहन, जै दिन चलती हूँ, उतने साल समझ लीजिए।

रुक्मिणी-दिल ऐसा छोटा मत करो बहू, अभी संसार का सुख ही क्या देखा है?

निर्मला–अगर संसार का यही सुख है, जो इतने दिनों से देख रही हूँ तो उससे जी भर गया। सच कहती हूँ बहन, इस बच्ची का मोह मुझे बाँधे हुए है, नहीं तो अब तक कभी की चली गई होती। न जाने इस बेचारी के भाग्य में क्या लिखा है?

दोनों महिलाएँ रोने लगीं। इधर जब से निर्मला ने चारपाई पकड़ ली है, रुक्मिणी के हृदय में दया का सोता-सा खुल गया है। द्वेष का लेश भी नहीं रहा। कोई काम करती हों, निर्मला की आवाज सुनते ही दौड़ती हैं। घंटों उसके पास कथा-पुराण सुनाया करती हैं। कोई ऐसी चीज पकाना चाहती हैं, जिसे निर्मला रुचि से खाए। निर्मला को कभी हँसते देख लेती हैं तो निहाल हो जाती हैं और बच्ची को तो अपने गले का हार बनाए रहती हैं। उसी की नींद सोती हैं, उसी की नींद जागती हैं। वही बालिका अब उसके जीवन का आधार है।

रुक्मिणी ने जरा देर बाद कहा-बहू, तुम इतनी निराश क्यों होती हो? भगवान् चाहेंगे, तो तुम दो-चार दिन में अच्छी हो जाओगी। मेरे साथ आज वैद्यजी के पास चलना। बड़े सज्जन हैं। निर्मला-दीदीजी, अब मुझे किसी वैद्य, हकीम की दवा फायदा न करेगी। आप मेरी चिंता न करें। बच्ची को आपकी गोद में छोड़े जाती हूँ। अगर जीती-जागती रहे तो किसी अच्छे कुल में विवाह कर दीजिएगा। मैं तो इसके लिए अपने जीवन में कुछ न कर सकी, केवल जन्म देने भर की अपराधिनी हूँ। चाहे कुँआरी रखिएगा, चाहे विष देकर मार डालिएगा, पर कुपात्र के गले न मढिएगा, इतनी ही आपसे मेरी विनय है। मैंने आपकी कुछ सेवा न की, इसका बड़ा दुःख हो रहा है। मुझ अभागिनी से किसी को सुख नहीं मिला। जिस पर मेरी छाया भी पड़ गई, उसका सर्वनाश हो गया, अगर स्वामीजी कभी घर आवें तो उनसे कहिएगा कि इस करम-जली के अपराध क्षमा कर दें।

रुक्मिणी रोती हुई बोली-बहू, तुम्हारा कोई अपराध नहीं, ईश्वर से कहती हूँ, तुम्हारी ओर से मेरे मन में जरा भी मैल नहीं है। हाँ, मैंने सदैव तुम्हारे साथ कपट किया, इसका मुझे मरते दम तक दु:ख रहेगा।

निर्मला ने कातर नेत्रों से देखते हुए कहा-दीदीजी, कहने की बात नहीं, पर बिना कहे रहा नहीं जाता। स्वामीजी ने हमेशा मुझे अविश्वास की दृष्टि से देखा, लेकिन मैंने कभी मन में भी उनकी उपेक्षा नहीं की। जो होना था, वह तो हो ही चुका था। अधर्म करके अपना परलोक क्यों बिगाड़ती? पूर्व जन्म में न जाने कौन सा पाप किया था, जिसका यह प्रायश्चित्त करना पड़ा। इस जन्म में काँटे बोती तो कौन गति होती?

निर्मला की साँस बड़े वेग से चलने लगी। फिर खाट पर लेट गई और बच्ची की ओर एक ऐसी दृष्टि से देखा, जो उसके जीवन की संपूर्ण विपत्कथा की वृहद् आलोचना थी, वाणी में इतनी सामर्थ्य कहाँ?

तीन दिनों तक निर्मला की आँखों से आँसुओं की धारा बहती रही। वह न किसी से बोलती थी, न किसी की ओर देखती थी और न किसी का कुछ सुनती थी। बस, रोए चली जाती थी। उस वेदना का कौन अनुमान कर सकता है?

चौथे दिन संध्या समय वह विपत्ति कथा समाप्त हो गई। उसी समय जब पशु-पक्षी अपने-अपने बसेरे को लौट