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उदयभानु लाल-तो आज मैं मरा जाता हूँ?

कल्याणी-जीने-मरने का हाल कोई नहीं जानता।

उदयभानु लाल-तो तुम बैठी यही मनाया करती हो?

कल्याणी—इसमें बिगड़ने की तो कोई बात नहीं। मरना एक दिन सभी को है। कोई यहाँ अमर होकर थोड़े ही आया है। आँखें बंद कर लेने से तो होनेवाली बात न टलेगी। रोज आँखों देखती हूँ, बाप का देहांत हो जाता है, उसके बच्चे गली-गली ठोकरें खाते फिरते हैं। आदमी ऐसा काम ही क्यों करे?

उदयभानु लाल ने जलकर कहा-तो अब समझ लूँ कि मेरे मरने के दिन निकट आ गए, यही तुम्हारी भविष्यवाणी है! सुहाग से स्त्रियों का जी ऊबते नहीं सुना था, आज यह नई बात मालूम हुई। रंडापे में भी कोई सुख होगा ही!

कल्याणी-तुमसे दुनिया की कोई भी बात कही जाती है, तो जहर उगलने लगते हो। इसलिए न कि जानते हो, इसे कहीं टिकना नहीं है, मेरी ही रोटियों पर पड़ी हुई है या और कुछ! जहाँ कोई बात कही, बस सिर हो गए, मानो मैं घर की लौंडी हूँ, मेरा केवल रोटी और कपड़े का नाता है। जितना ही मैं दबती हूँ, तुम और भी दबाते हो। मुफ्तखोर माल उड़ाएँ, कोई मुँह न खोले, शराब-कबाब में रुपए लुटें, कोई जबान न हिलाए। वे सारे काँटे मेरे बच्चों ही के लिए तो बोए जा रहे हैं।

उदयभानु लाल-तो मैं क्या तुम्हारा गुलाम हूँ?

कल्याणी=तो क्या मैं तुम्हारी लौंडी हूँ?

उदयभानु लाल-ऐसे मर्द और होंगे, जो औरतों के इशारों पर नाचते हैं।

कल्याणी-तो ऐसी स्त्रियों भी और होंगी, जो मर्दो की जूतियाँ सहा करती हैं।

उदयभानु लाल—मैं कमाकर लाता हूँ, जैसे चाहूँ, खर्च कर सकता हूँ। किसी को बोलने का अधिकार नहीं।

कल्याणी-तो आप अपना घर सँभालिए! ऐसे घर को मेरा दूर ही से सलाम है, जहाँ मेरी कोई पूछ नहीं। घर में तुम्हारा जितना अधिकार है, उतना ही मेरा भी। इससे जौ भर भी कम नहीं। अगर तुम अपने मन के राजा हो, तो मैं भी अपने मन की रानी हूँ। तुम्हारा घर तुम्हें मुबारक रहे, मेरे लिए पेट की रोटियों की कमी नहीं है। तुम्हारे बच्चे हैं, मारो या जिलाओ। न आँखों से देखूगी, न पीड़ा होगी। आँखें फूटी, पीर गई!

उदयभानु लाल-क्या तुम समझती हो कि तुम न सँभालेगी तो मेरा घर ही न सँभलेगा? मैं अकेले ऐसे-ऐसे दस घर सँभाल सकता हूँ।

कल्याणी—कौन? अगर आज के महीनों दिन मिट्टी में न मिल जाएँ तो कहना कोई कहती थी!

यह कहते-कहते कल्याणी का चेहरा तमतमा उठा, वह झमककर उठी और कमरे के द्वार की ओर चली। वकील साहब मुकदमे में तो खूब मीन-मेख निकालते थे, लेकिन स्त्रियों के स्वभाव का उन्हें कुछ यों ही सा ज्ञान था। यही एक ऐसी विद्या है, जिसमें आदमी बूढ़ा होने पर भी कोरा रह जाता है। अगर वे अब भी नरम पड़ जाते और कल्याणी का हाथ पकड़कर बिठा लेते तो शायद वह रुक जाती, लेकिन आपसे यह तो हो न सका, उलटे चलते-चलते एक और चरका दिया।

बोला—मैके का घमंड होगा? कल्याणी ने द्वार पर रुककर पति की ओर लाल-लाल नेत्रों से देखा और बिफरकर बोली-मैके वाले मेरे तकदीर के साथी नहीं हैं और न मैं इतनी नीच हूँ कि उनकी रोटियों पर जा पड़ूँ।

उदयभानु-तब कहाँ जा रही हो?

कल्याणी-तुम यह पूछनेवाले कौन होते हो? ईश्वर की सृष्टि में असंख्य प्राणियों के लिए जगह है, क्या मेरे लिए