पृष्ठ:निर्मला.pdf/१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

जगह नहीं है?

यह कहकर कल्याणी कमरे के बाहर निकल गई। आँगन में आकर उसने एक बार आकाश की ओर देखा, मानो तारागण को साक्षी दे रही है कि मैं इस घर में कितनी निर्दयता से निकाली जा रही हूँ। रात के ग्यारह बज गए थे। घर में सन्नाटा छा गया था, दोनों बेटों की चारपाई उसी के कमरे में रहती थी। वह अपने कमरे में आई, देखा चंद्रभानु सोया है, सबसे छोटा सूर्यभानु चारपाई पर उठ बैठा है। माता को देखते ही वह बोला-तुम तहाँ दई ती अम्माँ?

कल्याणी दूर ही से खड़े-खड़े बोली-कहीं तो नहीं बेटा, तुम्हारे बाबूजी के पास गई थी।

सूर्य-तुम तली दई, मुधे अतेले दर लदता था। तुम क्यों तली दई तीं, बताओ?

यह कहकर बच्चे ने गोद में चढने के लिए दोनों हाथ फैला दिए। कल्याणी अब अपने को न रोक सकी। मातस्नेह के सुधा-प्रवाह से उसका संतप्त हृदय परिप्लावित हो गया। हृदय के कोमल पौधे, जो क्रोध के ताप से मुरझा गए थे, फिर हरे हो गए। आँखें सजल हो गई। उसने बच्चे को गोद में उठा लिया और छाती से लगाकर बोलीतुमने पुकार क्यों न लिया, बेटा?

सूर्य-पुतालता तो ता, तुम थुनती न ती, बताओ अब तो कबी न दाओगी।

कल्याणी-नहीं भैया, अब नहीं जाऊँगी।

यह कहकर कल्याणी सूर्यभानु को लेकर चारपाई पर लेटी। माँ के हृदय से लिपटते ही बालक निश्शंक होकर सो गया, कल्याणी के मन में संकल्प-विकल्प होने लगे, पति की बातें याद आतीं तो मन होता–घर को तिलांजलि देकर चली जाऊँ, लेकिन बच्चों का मुँह देखती तो वात्सल्य से चित्त गद्गद हो जाता। बच्चों को किस पर छोड़कर जाऊँ? मेरे इन लालों को कौन पालेगा, ये किसके होकर रहेंगे? कौन प्रात:काल इन्हें दूध और हलवा खिलाएगा, कौन इनकी नींद सोएगा, इनकी नींद जागेगा? बेचारे कौड़ी के तीन हो जाएँगे। नहीं प्यारो, मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जाऊँगी। तुम्हारे लिए सबकुछ सह लूँगी। निरादर-अपमान, जली-कटी, खोटी-खरी, घुड़की-झिड़की सब तुम्हारे लिए सहूँगी।

कल्याणी तो बच्चे को लेकर लेटी, पर बाबू साहब को नींद न आई। उन्हें चोट करनेवाली बातें बड़ी मुश्किल से भूलती थीं। उफ, यह मिजाज! मानो मैं ही इनकी स्त्री हूँ। बात मुँह से निकालनी मुश्किल है। अब मैं इनका गुलाम होकर रहूँ। घर में अकेली यह रहे और बाकी जितने अपने बेगाने हैं, सब निकाल दिए जाएँ। जला करती है। मनाती है कि यह किसी तरह मरे, तो मैं अकेली आराम करूँ। दिल की बात मुँह से निकल ही आती है, चाहे कोई कितना ही छिपाए। कई दिन से देख रहा हूँ, ऐसी ही जली-कटी सुनाया करती है। मैके का घमंड होगा, लेकिन वहाँ कोई भी न पूछेगा, अभी सब आवभगत करते हैं। जब जाकर सिर पड़ जाएँगी तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जाएगा। रोती हुई जाएगी। वाह रे घमंड! सोचती है—मैं ही यह गृहस्थी चलाती हूँ। अभी चार दिन को कहीं चला जाऊँ तो मालूम हो जाएगा, सारी शेखी किरकिरी हो जाएगी। एक बार इसका घमंड तोड़ ही दूं। जरा वैधव्य का मजा भी चखा दूं। न जाने इनकी हिम्मत कैसे पड़ती है कि मुझे यों कोसने लगते हैं। मालूम होता है, प्रेम इसे छू नहीं गया या समझती है, यह घर से इतना चिमटा हुआ है कि इसे चाहे जितना कोतूं, टलने का नाम न लेगा। यही बात है, पर यहाँ संसार से चिमटनेवाले जीव नहीं है! जहन्नुम में जाए यह घर, जहाँ ऐसे प्राणियों से पाला पड़े। घर है या नरक? आदमी बाहर से थका-माँदा आता है तो उसे घर में आराम मिलता है। यहाँ आराम के बदले कोसने सुनने पड़ते हैं। मेरी मृत्यु के लिए व्रत रखे जाते हैं। यह है पच्चीस वर्ष के दांपत्य जीवन का अंत! बस, चल ही दूँ। जब देख लूँगा इनका सारा घमंड धूल में मिल गया और मिजाज ठंडा हो गया तो लौट आऊँगा। चार-पाँच दिन काफी होंगे। लो,