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में हानि-ही-हानि है। अतएव महाशय भालचंद्र को शोक-सूचना के साथ यह संदेशा भी भेज दिया गया। कल्या अपने पत्र में लिखा—इस अनाथिनी पर दया कीजिए और डूबती हुई नाव को पार लगाइए। स्वामीजी के मन में बड़ी-बड़ी कामनाएँ थीं, किंतु ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। अब मेरी लाज आपके हाथ है। कन्या आपकी हो चुकी। मैं लोगों का सेवा-सत्कार करने को अपना सौभाग्य समझती हूँ, लेकिन यदि इसमें कुछ कमी हो, कुछ त्रुटि पड़े, तो मेरी दशा का विचार करके क्षमा कीजिएगा। मुझे विश्वास है कि आप इस अनाथिनी की निंदा न होने देंगे आदि।

कल्याणी ने यह पत्र डाक से न भेजा, बल्कि पुरोहित से कहा-आपको कष्ट तो होगा, पर आप स्वयं जाकर यह पत्र दीजिए और मेरी ओर से बहुत विनय के साथ कहिएगा कि जितने कम आदमी आएँ, उतना ही अच्छा। यहाँ कोई प्रबंध करनेवाला नहीं है।

पुरोहित मोटेराम यह संदेश लेकर तीसरे दिन लखनऊ जा पहुँचे।

संध्या का समय था। बाबू भालचंद्र दीवानखाने के सामने आरामकुरसी पर नंग-धडंग लेटे हुए हुक्का पी रहे थे। बहुत ही स्थूल, ऊँचे कद के आदमी थे। ऐसा मालूम होता था कि काला देव है या कोई हब्शी अफ्रीका से पकड़कर आया है। सिर से पैर तक एक ही रंग था-काला। चेहरा इतना स्याह था कि मालूम न होता था कि माथे का अंत कहाँ है और सिर का आरंभ कहाँ। बस, कोयले की एक सजीव मूर्ति थी। आपको गरमी बहुत सताती थी। दो आदमी खड़े पंखा झल रहे थे, उस पर भी पसीने का तार बँधा हुआ था। आप आबकारी विभाग में एक ऊँचे ओहदे पर थे। पाँच सौ रुपए वेतन मिलता था। ठेकेदारों से खूब रिश्वत लेते थे। ठेकेदार शराब के नाम पानी बेचें, चौबीसों घंटे दुकान खुली रखें, आपको केवल खुश रखना काफी था। सारा कानून आपकी खुशी थी।

इतनी भयंकर मूर्ति थी कि चाँदनी रात में लोग उन्हें देखकर सहसा चौंक पड़ते थे-बालक और स्त्रियाँ ही नहीं, पुरुष तक सहम जाते थे। चाँदनी रात इसलिए कहा गया कि अँधेरी रात में तो उन्हें कोई देख ही न सकता था। श्यामलता अंधकार में विलीन हो जाती थी। केवल आँखों का रंग लाल था। जैसे पक्का मुसलमान पाँच बार नमाज पढ़ता है, वैसे ही आप भी पाँच बार शराब पीते थे, मुफ्त की शराब तो काजी को हलाल है, फिर आप तो शराब के अफसर ही थे, जितनी चाहें पिएँ, कोई हाथ पकड़ने वाला न था। जब प्यास लगती, शराब पी लेते। जैसे कुछ रंगों में परस्पर सहानुभूति है, उसी तरह कुछ रंगों में परस्पर विरोध है। लालिमा के संयोग से कालिमा और भी भयंकर हो जाती है।

बाबू साहब ने पंडितजी को देखते ही कुरसी से उठकर कहा-अख्खाह! आप हैं? आइए-आइए। धन्य भाग! अरे कोई है। कहाँ चले गए सब-के-सब, झगड़, गुरदीन, छकौड़ी, भवानी, रामगुलाम कोई है? क्या सब-के-सब मर गए! चलो रामगुलाम, भवानी, छकौड़ी, गुरदीन, झगड़। कोई नहीं बोलता, सब मर गए! दर्जन-भर आदमी हैं, पर मौके पर एक की भी सूरत नहीं नजर आती, न जाने सब कहाँ गायब हो जाते हैं। आपके वास्ते कुरसी लाओ।

बाबू साहब ने इन पाँचों के नाम कई बार दुहराए, लेकिन यह न हुआ कि पंखा झलनेवाले दोनों आदमियों में से किसी को कुरसी लाने को भेज देते। तीन-चार मिनट के बाद एक काना आदमी खाँसता हुआ आकर बोलासरकार, ईतना की नौकरी हमार कीन न होई ! कहाँ तक उधार-बाढ़ी लै-लै खाई माँगत-माँगत थेथर होय गएना।

भालचंद्र–बको मत, जाकर कुरसी लाओ। जब कोई काम करने को कहा गया, तो रोने लगता है। कहिए पंडितजी, वहाँ सब कुशल है?

मोटेराम-क्या कशल कहँ बाबजी, अब कशल कहाँ? सारा घर मिट्टी में मिल गया।

इतने में कहार ने एक टूटा हुआ चीड़ का संदूक लाकर रख दिया और बोला-कुरसी-मेज हमारे उठाए नाहीं