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उठत है।

पंडितजी शरमाते हुए डरते-डरते उस पर बैठे कि कहीं टूट न जाए और कल्याणी का पत्र बाबू साहब के हाथ में रख दिया।

भालचंद्र-अब और कैसे मिट्टी में मिलेगा? इससे बड़ी और कौन विपत्ति पड़ेगी? बाबू उदयभानु लाल से मेरी पुरानी दोस्ती थी। आदमी नहीं, हीरा था! क्या दिल था, क्या हिम्मत थी, (आँखें पोंछकर) मेरा तो जैसे दाहिना हाथ ही कट गया। विश्वास मानिए, जबसे यह खबर सुनी है, आँखों में अँधेरा सा छा गया है। खाने बैठता हूँ तो कौर मुँह में नहीं जाता। उनकी सूरत आँखों के सामने खड़ी रहती है। मुँह जूठा करके उठ जाता हूँ। किसी काम में दिल नहीं लगता। भाई के मरने का रंज भी इससे कम ही होता है। आदमी नहीं, हीरा था!

मोटेराम–सरकार, नगर में अब ऐसा कोई रईस नहीं रहा।

भालचंद्र-मैं खूब जानता हूँ पंडितजी, आप मुझसे क्या कहते हैं। ऐसा आदमी लाख-दो-लाख में एक होता है। जितना मैं उनको जानता था, उतना दूसरा नहीं जान सकता। दो-तीन बार की मुलाकात में उनका भक्त हो गया और मरते दम तक रहूँगा। आप समधिन साहब से कह दीजिएगा, मुझे दिली रंज है।

मोटेराम-आपसे ऐसी ही आशा थी! आप-जैसे सज्जनों के दर्शन दुर्लभ हैं। नहीं तो आज कौन बिना दहेज के पुत्र का विवाह करता है।

भालचंद्र-महाराज, दहेज की बातचीत ऐसे सत्यवादी पुरुषों से नहीं की जाती। उनसे संबंध हो जाना ही लाख रुपए के बराबर है। मैं इसी को अपना अहोभाग्य समझता हूँ। हाँ! कितनी उदार आत्मा थी। रुपए को तो उन्होंने कुछ समझा ही नहीं, तिनके के बराबर भी परवाह नहीं की। बुरा रिवाज है, बेहद बुरा! मेरा बस चले तो दहेज लेनेवालों और दहेज देनेवालों दोनों ही को गोली मार दूं। हाँ साहब, साफ गोली मार दूं, फिर चाहे फाँसी ही क्यों न हो जाए! पूछो, आप लड़के का विवाह करते हैं कि उसे बेचते हैं? अगर आपको लड़के की शादी में दिल खोलकर खर्च करने का अरमान है तो शौक से खर्च कीजिए, लेकिन जो कुछ कीजिए, अपने बल पर। यह क्या कि कन्या के पिता का गला रेतिए। नीचता है, घोर नीचता! मेरा बस चले, तो इन पाजियों को गोली मार दूँ।

मोटेराम–धन्य हो सरकार! भगवान् ने आपको बड़ी बुद्धि दी है। यह धर्म का प्रताप है। मालकिन की इच्छा है कि विवाह का मुहूर्त वही रहे और तो उन्होंने सारी बातें पत्र में लिख दी हैं। बस, अब आप ही उबारें तो हम उबर सकते हैं। इस तरह तो बारात में जितने सज्जन आएँगे, उनकी सेवा-सत्कार हम करेंगे ही, लेकिन परिस्थिति अब बहुत बदल गई है सरकार, कोई करने-धरनेवाला नहीं है। बस ऐसी बात कीजिए कि वकील साहब के नाम पर बट्टा न लगे।

भालचंद्र एक मिनट तक आँखें बंद किए बैठे रहे, फिर एक लंबी साँस खींचकर बोले-ईश्वर को मंजूर ही न था कि वह लक्ष्मी मेरे घर आती, नहीं तो क्या यह वज्र गिरता? सारे मनसूबे खाक में मिल गए। फूला न समाता था कि वह शुभ-अवसर निकट आ रहा है, पर क्या जानता था कि ईश्वर के दरबार में कुछ और षड्यंत्र रचा जा रहा है। मरनेवाले की याद ही रुलाने के लिए काफी है। उसे देखकर तो जख्म और भी हरा हो जाएगा। उस दशा में न जाने क्या कर बै→। इसे गुण समझिए, चाहे दोष कि जिससे एक बार मेरी घनिष्ठता हो गई, फिर उसकी याद चित्त से नहीं उतरती। अभी तो खैर! इतना ही है कि उनकी सूरत आँखों के सामने नाचती रहती है, लेकिन यदि वह कन्या घर में आ गई, तब मेरा जिंदा रहना कठिन हो जाएगा। सच मानिए, रोते-रोते मेरी आँखें फूट जाएँगी। जानता हूँ, रोना-धोना व्यर्थ है। जो मर गया, वह लौटकर नहीं आ सकता। सब्र करने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है, लेकिन दिल से मजबूर हूँ। उस अनाथ बालिका को देखकर मेरा कलेजा फट जाएगा।