पृष्ठ:निर्मला.pdf/१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

मोटेराम—ऐसा न कहिए सरकार! वकील साहब नहीं तो क्या, आप तो हैं। अब आप ही उसके पिता-तुल्य हैं। वह अब वकील साहब की कन्या नहीं, आपकी कन्या है। आपके हृदय के भाव तो कोई जानता नहीं। लोग समझेंगे, वकील साहब का देहांत हो जाने के कारण आप अपने वचन से फिर गए। इसमें आपकी बदनामी है। चित्त को समझाइए और हँसी-खुशी कन्या का पाणिग्रहण करा लीजिए। हाथी मरे तो नौ लाख का। लाख विपत्ति पड़ी है, लेकिन मालकिन आप लोगों की सेवा-सत्कार करने में कोई बात न उठा रखेंगी।

बाबू साहब समझ गए कि पंडित मोटेराम कोरे पोथी के ही पंडित नहीं, वरन् व्यवहार-नीति में भी चतुर हैं। बोले -पंडितजी, हलफ से कहता हूँ, मुझे उस लड़की से जितना प्रेम है, उतना अपनी लड़की से भी नहीं है, लेकिन जब ईश्वर को मंजूर नहीं है, तो मेरा क्या बस है? वह मृत्यु एक प्रकार की अमंगल सूचना है, जो विधाता की ओर से हमें मिली है। यह किसी आनेवाली मुसीबत की आकाशवाणी है। विधाता स्पष्ट रीति से कह रहा है कि यह विवाह मंगलमय न होगा। ऐसी दशा में आप ही सोचिए, यह संयोग कहाँ तक उचित है। आप तो विद्वान् आदमी हैं। सोचिए, जिस काम का आरंभ ही अमंगल से हो, उसका अंत मंगलमय हो सकता है? नहीं, जानबूझकर मक्खी नहीं निगली जाती। समधिन साहब को समझाकर कह दीजिएगा, मैं उनकी आज्ञापालन करने को तैयार हूँ, लेकिन इसका परिणाम अच्छा न होगा। स्वार्थ के वश में होकर मैं अपने परम मित्र की संतान के साथ यह अन्याय नहीं कर सकता।

इस तर्क ने पंडितजी को निरुत्तर कर दिया। वादी ने यह तीर छोड़ा था, जिसकी उनके पास कोई काट न थी। शत्रु ने उन्हीं के हथियार से उनपर वार किया था और वह उसका प्रतिकार न कर सकते थे। वह अभी कोई जवाब सोच ही रहे थे कि बाबू साहब ने फिर नौकरों को पुकारना शुरू किया अरे, तुम सब फिर गायब हो गए झगड़, छकौड़ी, भवानी, गुरुदीन, रामगुलाम! एक भी नहीं बोलता, सब-के-सब मर गए। पंडितजी के वास्ते पानी-वानी की फिक्र है? न जाने इन सबों को कोई कहाँ तक समझाए। अक्ल छू तक नहीं गई। देख रहे हैं कि एक महाशय दूर से थके-माँदे चले आ रहे हैं, पर किसी को जरा भी परवाह नहीं। लाओ, पानी-वानी रखो। पंडितजी, आपके लिए शर्बत बनवाऊँ या फलाहारी मिठाई मँगवा दूँ।

मोटेरामजी मिठाइयों के विषय में किसी तरह का बंधन न स्वीकार करते थे। उनका सिद्धांत था कि घृत से सभी वस्तुएँ पवित्र हो जाती हैं। रसगुल्ले और बेसन के लड्डू उन्हें बहुत प्रिय थे, पर शर्बत से उन्हें रुचि न थी। पानी से पेट भरना उनके नियम के विरुद्ध था। सकुचाते हुए बोले-शर्बत पीने की तो मुझे आदत नहीं, मिठाई खा लूँगा।

भालचंद्र–फलाहारी न?

मोटेराम-इसका मुझे कोई विचार नहीं।

भालचंद्र-है तो यही बात। छूत-छात सब ढकोसला है। मैं स्वयं नहीं मानता। अरे, अभी तक कोई नहीं आया? छकौड़ी, भवानी, गुरुदीन, रामगुलाम, कोई तो बोले!

अबकी भी वही बूढ़ा कहार खाँसता हुआ आकर खड़ा हो गया और बोला—सरकार, मोर तलब दै दीन जाय। ऐसी नौकरी मोसे न होई। कहाँ लो दौरी दौरत-दौरत गोड़ पिराय लागत है। भालचंद्र-काम कुछ करो या न करो, पर तलब पहले चाहिए! दिन भर पड़े-पड़े खाँसा करो, तलब तो तुम्हारी चढ़ रही है। जाकर बाजार से एक आने की ताजी मिठाई ला। दौड़ता हुआ जा।

कहार को यह हुक्म देकर बाबू साहब घर में गए और स्त्री से बोले वहाँ से एक पंडितजी आए हैं। यह खत लाए हैं, जरा पढ़ो तो।

पत्नीजी का नाम रंगीलीबाई था। गोरे रंग की प्रसन्न-मुख महिला थीं। रूप और यौवन उनसे विदा हो रहे थे, पर