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भालचंद्र—तुम्हें बड़प्पन मालूम होता हो, मुझे तो लुच्चापन ही मालूम होता है। फिर तुमने यह कैसे मान लिया कि मैंने वकीलाइन के विषय में जो बात कही थी, वह झूठी थी! क्या वह पत्र देखकर? तुम जैसी खुद सरल हो, वैसे ही दूसरे को भी सरल समझती हो।

रंगीली—इस पत्र में बनावट नहीं मालूम होती। बनावट की बात दिल में चुभती नहीं। उसमें बनावट की गंध अवश्य रहती है।

भालचंद्र-बनावट की बात तो ऐसी चुभती है कि सच्ची बात उसके सामने बिल्कुल फीकी मालूम होती है। यह किस्से-कहानियाँ लिखने वाले जिनकी किताबें पढ़-पढ़कर तुम घंटों रोती हो, क्या सच्ची बातें लिखते हैं? सरासर झूठ का तूमार बाँधते हैं। यह भी एक कला है।

रंगीली—क्यों जी, तुम मुझसे भी उड़ते हो! दाई से पेट छिपाते हो? मैं तुम्हारी बातें मान जाती हूँ, तो तुम समझते हो, इसे चकमा दिया; मगर मैं तुम्हारी एक-एक नस पहचानती हूँ। तुम अपना ऐब मेरे सिर मढ़कर खुद बेदाग बचना चाहते हो। बोलो, कुछ झूठ कहती हूँ, जब वकील साहब जीते थे, जो तुमने सोचा था कि ठहराव की जरूरत ही क्या है, वे खुद ही जितना उचित समझेंगे, देंगे, बल्कि बिना ठहराव के और भी ज्यादा मिलने की आशा होगी। अब जो वकील साहब का देहांत हो गया तो तरह-तरह के हीले-हवाले करने लगे। यह भलमनसी नहीं, छोटापन है, इसका इलजाम भी तुम्हारे सिर है। मैं अब शादी-ब्याह के नगीच न जाऊँगी। तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करो। ढोंगी आदमियों से मुझे चिढ़ है। जो बात करो, सफाई से करो, बुरा हो या अच्छा। 'हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और' वाली नीति पर चलना तुम्हें शोभा नहीं देता। बोलो अब भी वहाँ शादी करते हो या नहीं?

भालचंद्र-जब मैं बेईमान, दगाबाज और झूठा ठहरा तो मुझसे पूछना ही क्या! मगर खूब पहचानती हो आदमियों को! क्या कहना है, तुम्हारी इस सूझ-बूझ का, बलैया ले लें!

रंगीली-हो बड़े हयादार, अब भी नहीं शरमाते। ईमान से कहो, मैंने बात ताड़ ली कि नहीं?

भालचंद्र-अजी जाओ, वह दूसरी औरतें होती हैं, जो मरदों को पहचानती हैं। अब तक मैं यही समझता था कि औरतों की दृष्टि बड़ी सूक्ष्म होती है, पर आज यह विश्वास उठ गया और महात्माओं ने औरतों के विषय में जो तत्त्व की बातें कही हैं, उनको मानना पड़ा।

रंगीली-जरा आईने में अपनी सूरत तो देख आओ, तुम्हें मेरी कसम है। जरा देख लो, कितना झेंपे हुए हो।

भालचंद्र-सच कहना, कितना झेंपा हुआ हूँ?

रंगीली-इतना ही, जितना कोई भलामानस चोर खुल जाने पर झेंपता है।

भालचंद्र-खैर, मैं झेंपा ही सही, पर शादी वहाँ न होगी।

रंगीली—मेरी बला से, जहाँ चाहो करो। क्यों, भुवन से एक बार क्यों नहीं पूछ लेते?

भालचंद्र-अच्छी बात है, उसी पर फैसला रहा।

रंगीली-जरा भी इशारा न करना!

भालचंद्र अजी, मैं उसकी तरफ ताकूँगा भी नहीं।

संयोग से ठीक इसी वक्त भुवनमोहन भी आ पहुँचा। ऐसे सुंदर, सुडौल, बलिष्ठ युवक कॉलेजों में बहुत कम देखने में आते हैं। बिल्कुल माँ को पड़ा था, वही गोरा-चिट्टा रंग, वही पतले-पतले गुलाब की पत्ती के-से ओठ, वही चौड़ा, माथा, वही बड़ी-बड़ी आँखें, डील-डौल बाप का-सा था। ऊँचा कोट, बीचेज, टाई, बूट, हैट उस पर खूब फब रहे थे। हाथ में एक हाकी-स्टिक थी। चाल में जवानी का गरूर था, आँखों में आत्मगौरव। रंगीली ने कहा-आज बड़ी देर लगाई तुमने? यह देखो, तुम्हारी ससुराल से यह खत आया है। तुम्हारी सास ने