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लिखा है। साफ-साफ बतला दो, अभी सबेरा है। तुम्हें वहाँ शादी करना मंजूर है या नहीं?

भुवन मोहन-शादी करनी तो चाहिए अम्माँ, पर मैं करूँगा नहीं।

रंगीली-क्यों?

भुवन मोहन-कहीं ऐसी जगह शादी करवाइए कि खूब रुपए मिलें और न सही एक लाख का तो डौल हो। वहाँ अब क्या रखा है? वकील साहब रहे ही नहीं, बुढ़िया के पास अब क्या होगा?

रंगीली-तुम्हें ऐसी बातें मुँह से निकालते शर्म नहीं आती?

भुवन मोहन—इसमें शर्म की कौन सी बात है? रुपए किसे काटते हैं? लाख रुपए तो लाख जन्म में भी न जमा कर पाऊँगा। इस साल पास भी हो गया तो कम-से-कम पाँच साल तक रुपए से सूरत नजर न आएगी। फिर सौ-दो-सौ रुपए महीने कमाने लगूंगा। पाँच-छ: तक पहुँचते-पहुँचते उम्र के तीन भाग बीत जाएँगे। रुपए जमा करने की नौबत ही न आएगी। दुनिया का कुछ मजा न उठा सकूँगा। किसी धनी की लड़की से शादी हो जाती तो चैन से कटती। मैं ज्यादा नहीं चाहता, बस एक लाख हो या फिर कोई ऐसी जायदादवाली बेवा मिले, जिसके एक ही लड़की हो।

रंगीली–चाहे औरत कैसी ही मिले।

भुवन मोहन-धन सारे ऐबों को छिपा देगा। मुझे वह गालियाँ भी सुनाए, तो भी यूँ न करूँ। दुधारू गाय की लात किसे बुरी मालूम होती है?

बाबू साहब ने प्रशंसा-सूचक भाव से कहा-हमें उन लोगों के साथ सहानुभति है और दुःख है कि ईश्वर ने उन्हें विपत्ति में डाला, लेकिन बुद्धि से काम लेकर ही कोई निश्चय करना चाहिए। हम कितने ही फटे-हालों जाएँ, फिर भी अच्छी-खासी बारात हो जाएगी। वहाँ भोजन का भी ठिकाना नहीं। सिवाय इसके कि लोग हँसें और कोई नतीजा न निकलेगा।

रंगीली-तुम बाप-पूत दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हो। दोनों उस गरीब लड़की के गले पर छुरी फेरना चाहते हो।

भुवन मोहन-जो गरीब है, उसे गरीबों ही के यहाँ संबंध करना चहिए। अपनी हैसियत से बढ़कर...।

रंगीली-चुप भी रह, आया है वहाँ से हैसियत लेकर। तुम कहाँ के धन्ना-सेठ हो? कोई आदमी द्वार पर आ जाए तो एक लोटे पानी को तरस जाए। बड़े हैसियतवाले बने हो!

यह कहकर रंगीली वहाँ से उठकर रसोई का प्रबंध करने चली गई।

भुवनमोहन मुसकराता हुआ अपने कमरे में चला गया और बाबू साहब मूंछों पर ताव देते हुए बाहर आए कि मोटेराम को अंतिम निश्चय सुना दें, पर उनका कहीं पता न था।

मोटेरामजी कुछ देर तक तो कहार की राह देखते रहे, जब उसके आने में बहुत देर हुई तो उनसे बैठा न गया। सोचा यहाँ बैठे-बैठे काम न चलेगा, कुछ उद्योग करना चाहिए। भाग्य के भरोसे यहाँ अड़ी किए बैठे रहे तो भूखों मर जाएँगे। यहाँ तुम्हारी दाल नहीं गलने की। चुपके से लकड़ी उठाई और जिधर वह कहार गया था, उसी तरफ चले। बाजार थोड़ी ही दूर पर था, एक क्षण में जा पहुँचे। देखा तो बुड्ढा एक हलवाई की दुकान पर बैठा चिलम पी रहा था। उसे देखते ही आपने बड़ी बेतकल्लुफी से कहा-अभी कुछ तैयार नहीं है क्या महरा? सरकार वहाँ बैठे बिगड़ रहे हैं कि जाकर सो गया या ताड़ी पीने लगा। मैंने कहा-'सरकार यह बात नहीं, बुड्ढा आदमी है, आते ही आते तो आएगा।' बड़े विचित्र जीव हैं। न जाने इनके यहाँ कैसे नौकर टिकते हैं।

कहार-मुझे छोडकर आज तक दसरा कोई टिका नहीं और न टिकेगा। साल-भर से तलब नहीं मिली। किसी को तलब नहीं देते। जहाँ किसी ने तलब माँगी और लगे डाँटने। बेचारा नौकरी छोड़कर भाग जाता है। वे दोनों आदमी,