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ही के स्पर्श से खिलती है। दोनों में समान प्रेरणा है। निर्मला के लिए वह प्रभात समीर कहाँ था?

पहला महीना गुजरते ही तोताराम ने निर्मला को अपना खजांची बना लिया। कचहरी से आकर दिन-भर की कमाई उसे दे देते। उनका खयाल था कि निर्मला इन रुपयों को देखकर फूली न समाएगी। निर्मला बड़े शौक से इस पद का काम अंजाम देती। एक-एक पैसे का हिसाब लिखती, अगर कभी रुपए कम मिलते तो पूछती आज कम क्यों हैं। गृहस्थी के संबंध में उनसे खूब बातें करती। इन्हीं बातों के लायक वह उनको समझती थी। ज्योंही कोई विनोद की बात उनके मुँह से निकल जाती, उसका मुख मलिन हो जाता था।

निर्मला जब वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर आईने के सामने खड़ी होती और उसमें अपने सौंदर्य की सुषमापूर्ण आभा देखती तो उसका हृदय एक सतृष्ण कामना से तड़प उठता था। उस वक्त उसके हृदय में एक ज्वाला-सी उठती। मन में आता इस घर में आग लगा दूँ। अपनी माता पर क्रोध आता, पर सबसे अधिक क्रोध बेचारे निरपराध तोताराम पर आता। वह सदैव इस ताप से जला करती। बाँका सवार लट्-टटू पर सवार होना कब पसंद करेगा, चाहे उसे पैदल ही क्यों न चलना पड़े? निर्मला की दशा उसी बाँके सवार की-सी थी। वह उस पर सवार होकर उड़ना चाहती थी, उस उल्लासमयी विद्युत् गति का आनंद उठाना चाहती थी, टटू के हिनहिनाने और कनौतियाँ खड़ी करने से क्या आशा होती? संभव था कि बच्चों के साथ हँसने-खेलने से वह अपनी दशा को थोड़ी देर के लिए भूल जाती, कुछ मन हरा हो जाता, लेकिन रुक्मिणी देवी लड़कों को उसके पास फटकने तक न देती, मानो वह कोई पिशाचिनी है, जो उन्हें निगल जाएगी। रुक्मिणी देवी का स्वभाव सारे संसार से निराला था, यह पता लगाना कठिन था कि वह किस बात से खुश होती थी और किस बात से नाराज। एक बार जिस बात से खुश हो जाती थी, दूसरी बार उसी बात से जल जाती थी। अगर निर्मला अपने कमरे में बैठी रहती तो कहती कि न जाने कहाँ की मनहूसिन है! अगर वह कोठे पर चढ़ जाती या महरियों से बातें करती तो छाती पीटने लगती-न लाज है, न शरम, निगोड़ी ने हया भून खाई! अब क्या कुछ दिनों में बाजार में नाचेगी! जब से वकील साहब ने निर्मला के हाथ में रुपए-पैसे देने शुरू किए, रुक्मिणी उसकी आलोचना करने पर आरूढ़ हो गईं। उन्हें मालूम होता था कि अब प्रलय होने में बहुत थोड़ी कसर रह गई है।

लड़कों को बार-बार पैसों की जरूरत पड़ती। जब तक खुद स्वामिनी थी, उन्हें बहला दिया करती थी। अब सीधे निर्मला के पास भेज देती। निर्मला को लड़कों के चटोरापन अच्छा न लगता था। कभी-कभी पैसे देने से इनकार कर देती। रुक्मिणी को अपने वाग्बाण सर करने का अवसर मिल जाता। अब तो मालकिन हुई है, लड़के काहे को जिएँगे। बिना माँ के बच्चे को कौन पूछे? रुपयों की मिठाइयाँ खा जाते थे, अब धेले-धेले को तरसते हैं। निर्मला अगर चिढ़कर किसी दिन बिना कुछ पूछे-ताछे पैसे दे देती तो देवीजी उसकी दूसरी ही आलोचना करतीं इन्हें क्या, लड़के मरें या जिएँ, इनकी बला से, माँ के बिना कौन समझाए कि बेटा, बहुत मिठाइयाँ मत खाओ। आई-गई तो मेरे सिर जाएगी, इन्हें क्या? यहीं तक होता तो निर्मला शायद जब्त कर जाती, पर देवीजी तो खुफिया पुलिस के सिपाही की भाँति निर्मला का पीछा करती रहती थीं। अगर वह कोठे पर खड़ी है तो अवश्य ही किसी पर निगाह डाल रही होगी। महरी से बातें करती है तो अवश्य ही उनकी निंदा करती होगी। बाजार से कुछ मँगवाती है तो अवश्य कोई विलास वस्तु होगी। वह बराबर उसके पत्र पढ़ने की चेष्टा किया करती। छिप-छिपकर बातें सुना करती। निर्मला उनकी दोधारी तलवार से काँपती रहती थी। यहाँ तक कि उसने एक दिन पति से कहा-आप जरा जीजी को समझा दीजिए, क्यों मेरे पीछे पड़ी रहती हैं?

तोताराम ने तेज होकर कहा-तुम्हें कुछ कहा है, क्या?

'रोज ही कहती है। बात मुँह से निकालना मुश्किल है। अगर उन्हें इस बात की जलन हो कि यह मालकिन क्यों