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बनी हुई है तो आप उन्हीं को रुपए-पैसे दीजिए। मुझे न चाहिए, यही मालकिन बनी रहें। मैं तो केवल इतना चाहती हूँ कि कोई मुझे ताने-मेहने न दिया करे।'

यह कहते-कहते निर्मला की आँखों से आँसू बहने लगे। तोताराम को अपना प्रेम दिखाने का यह बहुत ही अच्छा मौका मिला। बोले–मैं आज ही उनकी खबर लूँगा। साफ कह दूँगा, मुँह बंद करके रहना है तो रहो, नहीं तो अपनी राह लो। इस घर की स्वामिनी वह नहीं हैं, तुम हो। वह केवल तुम्हारी सहायता के लिए हैं। अगर सहायता करने के बदले तुम्हें दिक् करती हैं तो उनके यहाँ रहने की जरूरत नहीं। मैंने सोचा था कि विधवा हैं, अनाथ हैं, पाव भर आटा खाएँगी, पड़ी रहेंगी। जब और नौकर-चाकर खा रहे हैं तो वह तो अपनी बहन ही है। लड़कों की देखभाल के लिए एक औरत की जरूरत भी थी, रख लिया, लेकिन इसके यह माने नहीं कि वह तुम्हारे ऊपर शासन करें।

निर्मला ने फिर कहा-लड़कों को सिखा देती हैं कि जाकर माँ से पैसे माँगो, कभी कुछ-कभी कुछ। लड़के आकर मेरी जान खाते हैं। घड़ी भर लेटना मुश्किल हो जाता है। डाँटती हूँ तो वह आँखें लाल-पीली करके दौड़ती हैं। मुझे समझती हैं कि लड़कों को देखकर जलती है। ईश्वर जानते होंगे कि मैं बच्चों को कितना प्यार करती हूँ। आखिर मेरे ही बच्चे तो हैं। मुझे उनसे क्यों जलन होने लगी?

तोताराम क्रोध से काँप उठे। बोले तुम्हें जो लड़का दिक् करे, उसे पीट दिया करो। मैं भी देखता हूँ कि लौंडे शरीर हो गए हैं। मंसाराम को तो मैं बोर्डिंग हाउस में भेज दूंगा। बाकी दोनों को तो आज ही ठीक किए देता हूँ।

उस वक्त तोताराम कचहरी जा रहे थे। डाँट-डपट करने का मौका न था, लेकिन कचहरी से लौटते ही उन्होंने घर में रुक्मिणी से कहा-क्यों बहन, तुम्हें इस घर में रहना है या नहीं? अगर रहना है, शांत होकर रहो। यह क्या कि दूसरों का रहना मुश्किल कर दो।

रुक्मणी समझ गई कि बहू ने अपना वार किया, पर वह दबने वाली औरत न थी। एक तो उम्र में बड़ी, तिस पर इसी घर की सेवा में जिंदगी काट दी थी। किसकी मजाल थी कि उन्हें बेदखल कर दे! उन्हें भाई की इस क्षुद्रता पर आश्चर्य हुआ। बोली तो क्या लौंडी बनाकर रखोगे? लौंडी बनकर रहना है तो इस घर की लौंडी न बनूँगी। अगर तुम्हारी यह इच्छा हो कि घर में कोई आग लगा दे और मैं खड़ी देखा करूँ, किसी को बेराह चलते देखू तो चुप साध लूँ, जो जिसके मन में आए करे, मैं मिट्टी की देवी बनी रहूँ तो यह मुझसे न होगा। यह हुआ क्या, जो तुम इतना आपे से बाहर हो रहे हो? निकल गई सारी बुद्धिमानी, कल की लौंडिया चोटी पकड़कर नचाने लगी? कुछ पूछना न ताछना, बस, उसने तार खींचा और तुम काठ के सिपाही की तरह तलवार निकालकर खड़े हो गए।

तोताराम–सुनता हूँ कि तुम हमेशा खुचर निकालती रहती हो। बात-बात पर ताने देती हो। अगर कुछ सीख देनी हो तो उसे प्यार से, मीठे शब्दों में देनी चाहिए। तानों से सीख मिलने के बदले उलटा और जी जलने लगता है।

रुक्मिणी-तो तुम्हारी यह मरजी है कि किसी बात में न बोलूँ, यही सही, लेकिन फिर यह न कहना कि तुम घर में बैठी थीं, क्यों नहीं सलाह दी। जब मेरी बातें जहर लगती हैं तो मुझे क्या कुत्ते ने काटा है, जो बोलूँ? मसल है 'नाटों खेती, बहुरियों घर।' मैं भी देखू, बहुरिया कैसे कर घलाती है!

इतने में सियाराम और जियाराम स्कूल से आ गए। आते ही दोनों बुआजी के पास जाकर खाने को माँगने लगे।

रुक्मिणी ने कहा—जाकर अपनी नई अम्माँ से क्यों नहीं माँगते, मुझे बोलने का हुक्म नहीं है।

तोताराम–अगर तुम लोगों ने उस घर में कदम रखा तो टाँग तोड़ दूँगा। बदमाशी पर कमर बाँधी है।

जियाराम जरा शोख था। बोला-उनको तो आप कुछ नहीं कहते, हमीं को धमकाते हैं। कभी पैसे नहीं देतीं।

सियाराम ने इस कथन का अनुमोदन किया-कहती हैं, मुझे दिक् करोगे तो कान काट लूँगी। कहती हैं कि नहीं जिया?