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नयनसुख–अच्छा, कुछ इत्र-तेल, फूल-पत्ते, चाट-वाट का भी मजा चखाया?

तोताराम-अजी, यह सब कर चुका। दंपती-शास्त्र के सारे मंत्रों का इम्तहान ले चुका, सब कोरी गप्पें हैं।

नयनसुख–अच्छा, तो अब मेरी एक सलाह मानो, जरा अपनी सूरत बनवा लो। आजकल यहाँ एक बिजली के डॉक्टर आए हुए हैं, जो बुढ़ापे के सारे निशान मिटा देते हैं। क्या मजाल कि चेहरे पर एक झुरीं या सिर का बाल पका रह जाए। न जाने क्या जादू कर देते हैं कि आदमी का चोला ही बदल जाता है।

तोताराम–फीस क्या लेते हैं?

नयनसुख–फीस तो सुना है, शायद पाँच सौ रुपए!

तोताराम-अजी, कोई पाखंडी होगा, बेवकूफों को लूट रहा होगा। कोई रोगन लगाकर दो-चार दिन के लिए जरा चेहरा चिकना कर देता होगा। इश्तहारी डॉक्टरों पर तो अपना विश्वास ही नहीं। दस-पाँच की बात होती तो कहता, जरा दिल्लगी ही सही। पाँच सौ रुपए बड़ी रकम है।

नयनसुख–तुम्हारे लिए पाँच सौ रुपए कौन बड़ी बात है। एक महीने की आमदनी है। मेरे पास तो भाई पाँच सौ रुपए होते तो सबसे पहला काम यही करता। जवानी के एक घंटे की कीमत पाँच सौ रुपए से कहीं ज्यादा है।

तोताराम-अजी, कोई सस्ता नुस्खा बताओ, कोई फकीरी जड़ी-बूटी, जो कि बिना हर्र-फिटकरी के रंग चोखा हो जाए। बिजली और रेडियम बड़े आदमियों के लिए रहने दो। उन्हीं को मुबारक हो।

नयनसुख-तो फिर रंगीलेपन का स्वाँग रचो। यह ढीला-ढाला कोट फेंको, तंजेब की चुस्त अचकन हो, चुन्नटदार पाजामा, गले में सोने की जंजीर पड़ी हुई, सिर पर जयपुरी साफा बाँधा हुआ, आँखों में सुरमा और बालों में हिना का तेल पड़ा हुआ। तोंद का पिचकना भी जरूरी है। दोहरा कमरबंद बाँधो। जरा तकलीफ तो होगी, पर अचकन सज उठेगी। खिजाब मैं ला दूँगा। सौ-पचास गजलें याद कर लो और मौके-मौके से शेर पढ़ो। बातों में रस भरा हो। ऐसा मालूम हो कि तुम्हें दीन और दुनिया की कोई फिक्र नहीं है बस, जो कुछ है, प्रियतमा ही है। जवाँमर्दी और साहस के काम करने का मौका ढूँढ़ते रहो। रात को झूठ-मूठ शोर करो-चोर-चोर और तलवार लेकर अकेले पिल पड़ो। हाँ, जरा मौका देख लेना, ऐसा न हो कि सचमुच कोई चोर आ जाए और तुम उसके पीछे दौड़ो, नहीं तो सारी कलई खुल जाएगी और मुफ्त के उल्लू बनोगे। उस वक्त तो जवाँमर्दी इसी में है कि दम साधे खड़े रहो, जिससे वह समझे कि तुम्हें खबर ही नहीं हुई, लेकिन ज्योंही चोर भाग खड़ा हो, तुम भी उछलकर बाहर निकलो और तलवार लेकर 'कहाँ? कहाँ?' कहते दौड़ो। ज्यादा नहीं, एक महीना मेरी बातों का इम्तहान करके देखो। अगर वह तुम्हारा दम न भरने लगे तो जो जुर्माना कहो, वह दूँ।

तोताराम ने उस वक्त तो यह बातें हँसी में उड़ा दी, जैसा कि एक व्यवहार कुशल मनुष्य को करना चहिए था, लेकिन इसमें की कुछ बातें उसके मन में बैठ गईं। उनका असर पड़ने में कोई संदेह न था। धीरे-धीरे रंग बदलने लगे, जिसमें लोग खटक न जाएँ। पहले बालों से शुरू किया, फिर सुरमे की बारी आई, यहाँ तक कि एक-दो महीने में उनका कलेवर ही बदल गया। गजलें याद करने का प्रस्ताव तो हास्यास्पद था, लेकिन वीरता की डींग मारने में कोई हानि न थी।

उस दिन से वह रोज अपनी जवाँमर्दी का कोई-न-कोई प्रसंग अवश्य छेड़ देते। निर्मला को संदेह होने लगा कि कहीं इन्हें उन्माद का रोग तो नहीं हो रहा है। जो आदमी मूंग की दाल और मोटे आटे के दो फुलके खाकर भी नमक सुलेमानी का मुहताज हो, उसके छैलेपन पर उन्माद का संदेह हो तो आश्चर्य ही क्या? निर्मला पर इस पागलपन का और क्या रंग जमता? उसे उनपर दया आने लगी। क्रोध और घृणा का भाव जाता रहा। क्रोध और घृणा उनपर होती है, जो अपने होश में हों, पागल आदमी तो दया ही का पात्र है। वह बात-बात में उनकी चुटकियाँ