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लेती, उनका मजाक उड़ाती, जैसे लोग पागलों के साथ किया करते हैं। हाँ, इसका ध्यान रखती थी कि वह समझ न जाएँ। वह सोचती, बेचारा अपने पाप का प्रायश्चित्त कर रहा है। यह सारा स्वाँग केवल इसलिए तो है कि मैं अपना दुःख भूल जाऊँ। आखिर अब भाग्य तो बदल सकता नहीं, इस बेचारे को क्यों जलाऊँ?

एक दिन रात को नौ बजे तोताराम बाँके बने हुए सैर करके लौटे और निर्मला से बोले आज तीन चोरों से सामना हो गया। जरा शिवपुर की तरफ चला गया था। अँधेरा था ही। ज्योंही रेल की सड़क के पास पहुँचा तो तीन आदमी तलवार लिए हुए न जाने किधर से निकल पड़े। यकीन मानो, तीनों काले देव थे। मैं बिल्कुल अकेला, पास में सिर्फ यह छड़ी थी। उधर तीनों तलवार बाँधे हुए, होश उड़ गए। समझ गया कि जिंदगी का यहीं तक साथ था, मगर मैंने भी सोचा, मरता ही हूँ तो वीरों की मौत क्यों न मरूँ। इतने में एक आदमी ने ललकारकर कहा, रख दे तेरे पास जो कुछ हो और चुपके से चला जा। मैं छड़ी सँभालकर खड़ा हो गया और बोला, मेरे पास तो सिर्फ यह छड़ी है और इसका मूल्य एक आदमी का सिर है।

मेरे मुँह से इतना निकलना था कि तीनों तलवार खींचकर मुझ पर झपट पड़े और मैं उनके वारों को छड़ी पर रोकने लगा। तीनों झल्ला-झल्लाकर वार करते थे, खटाके की आवाज होती थी और मैं बिजली की तरह झपटकर उनके तारों को काट देता था। कोई दस मिनट तक तीनों ने खूब तलवार के जौहर दिखाए, पर मुझ पर रेफ तक न आई। मजबूरी यही थी कि मेरे हाथ में तलवार न थी। यदि कहीं तलवार होती तो एक को जीता न छोड़ता। खैर, कहाँ तक बयान करूँ। उस वक्त मेरे हाथों की सफाई देखने काबिल थी। मुझे खुद आश्चर्य हो रहा था कि यह चपलता मुझमें कहाँ से आ गई। जब तीनों ने देखा कि यहाँ दाल नहीं गलने की, तो तलवार म्यान में रख ली और पीठ ठोककर बोले-जवान, तुम-सा वीर आज तक नहीं देखा। हम तीनों तीन सौ पर भारी। गाँव-के-गाँव ढोल बजाकर लूटते हैं, पर आज तुमने हमें नीचा दिखा दिया। हम तुम्हारा लोहा मान गए। यह कहकर तीनों फिर नजरों से गायब हो गए।

निर्मला ने गंभीर भाव से मुसकराकर कहा—इस छड़ी पर तो तलवार के बहुत से निशान बने हुए होंगे?

मुंशीजी इस शंका के लिए तैयार न थे, पर कोई जवाब देना आवश्यक था, बोले—मैं वारों को बराबर खाली कर देता। दो-चार चोटें छड़ी पर पड़ी भी तो उचटती हुई, जिनसे कोई निशान नहीं पड़ सकता था।

अभी उनके मुँह से पूरी बात भी न निकली थी कि सहसा रुक्मिणी देवी बदहवास दौड़ती हुई आई और हाँफते हुए बोलीं-तोता है कि नहीं? मेरे कमरे में साँप निकल आया है। मेरी चारपाई के नीचे बैठा हुआ है। मैं उठकर भागी। मुआ कोई दो गज का होगा। फन निकाले फुफकार रहा है, जरा चलो तो। डंडा लेते चलना।

तोताराम के चेहरे का रंग उड़ गया। मुँह पर हवाइयाँ छूटने लगीं, मगर मन के भावों को छिपाकर बोले-साँप यहाँ कहाँ? तुम्हें धोखा हुआ होगा। कोई रस्सी होगी।

रुक्मिणी-अरे, मैंने अपनी आँखों से देखा है। जरा चलकर देख लो न। हैं, हैं, मर्द होकर डरते हो?

मुंशीजी घर से तो निकले, लेकिन बरामदे में फिर ठिठक गए। उनके पाँव ही न उठते थे। कलेजा धड़-धड़ कर रहा था। साँप बड़ा क्रोधी जानवर है। कहीं काट ले तो मुफ्त में प्राण से हाथ धोने पड़ें। बोले-डरता नहीं हूँ। साँप ही तो है, शेर तो नहीं, मगर साँप पर लाठी नहीं असर करती, जाकर किसी को भेजूं, किसी के घर से भाला लाएँ।

यह कहकर मुंशीजी लपके हुए बाहर चले गए। मंसाराम बैठा खाना खा रहा था। मुंशीजी तो बाहर चले गए, इधर वह खाना छोड़, अपनी हॉकी का डंडा हाथ में ले, कमरे में घुस पड़ा और तुरंत चारपाई खींच ली। साँप मस्त था, भागने के बदले फन निकालकर खड़ा हो गया। मंसाराम ने चटपट चारपाई की चादर उठाकर साँप के ऊपर फेंक दी और ताबड़तोड़ तीन-चार डंडे कसकर जमाए। साँप चादर के अंदर तड़पकर रह गया। तब उसे डंडे पर उठाए