पृष्ठ:निर्मला.pdf/३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

अपनी यह हीनावस्था उनके लिए असह्य थी। वह आईने के सामने से हट गए, उन्हें अपनी ही सूरत से घृणा होने लगी। फिर इस रूपवती कामिनी का उनसे घृणा करना कोई आश्चर्य की बात न थी। निर्मला की ओर ताकने का भी उन्हें साहस न हुआ। उसकी यह अनुपम छवि उनके हृदय का शूल बन गई।

निर्मला ने कहा आज इतनी देर कहाँ लगाई? दिन भर राह देखते-देखते आँखें फूट जाती हैं।

तोताराम ने खिड़की की ओर ताकते हुए जवाब दिया-मुकदमों के मारे दम मारने की छुट्टी नहीं मिलती। अभी एक मुकदमा और था, लेकिन मैं सिरदर्द का बहाना करके भाग खड़ा हुआ।

निर्मला-तो क्यों इतने मुकदमे लेते हो? काम उतना ही करना चाहिए, जितना आराम से हो सके। प्राण देकर थोड़े ही काम किया जाता है। मत लिया करो बहुत मुकदमे। मुझे रुपयों का लालच नहीं। तुम आराम से रहोगे तो रुपए बहुत मिलेंगे।

तोताराम–भई, आती हुई लक्ष्मी भी तो नहीं ठुकराई जाती।

निर्मला–लक्ष्मी अगर रक्त और मांस की भेंट लेकर आती है तो उसका न आना ही अच्छा। मैं धन की भूखी नहीं।

इस वक्त मंसाराम भी स्कूल से लौटा। धूप में चलने के कारण मुख पर पसीने की बूंदें आई हुई थीं। गोरे मुखड़े पर खून की लाली दौड़ रही थी। आँखों से ज्योति-सी निकलती मालूम होती थी। द्वार पर खड़ा होकर बोला—अम्माँजी लाइए, कुछ खाने को निकालिए, जरा खेलने जाना है।

निर्मला जाकर गिलास में पानी लाई और एक तश्तरी में कुछ मेवे रखकर मंसाराम को दिए। मंसाराम जब खाकर चलने लगा तो निर्मला ने पूछा-कब तक आओगे?

मंसाराम–कह नहीं सकता, गोरों के साथ हॉकी का मैच है। बारक यहाँ से बहुत दूर है।

निर्मला-भई, जल्द आना। खाना ठंडा हो जाएगा तो कहोगे मुझे भूख नहीं है।

मंसाराम ने निर्मला की ओर सरल स्नेह भाव से देखकर कहा—मुझे देर हो जाए तो समझ लीजिएगा, वहीं खा रहा हूँ। मेरे लिए बैठने की जरूरत नहीं।

वह चला गया तो निर्मला बोली-पहले तो घर में आते ही न थे, मुझसे बोलते शरमाते थे। किसी चीज की जरूरत होती तो बाहर से ही मँगवा भेजते। जब से मैंने बुलाकर कहा, तब से आने लगे हैं।

तोताराम ने कुछ चिढ़कर कहा-यह तुम्हारे पास खाने-पीने की चीजें माँगने क्यों आता है? दीदी से क्यों नहीं कहता? निर्मला ने यह बात प्रशंसा पाने के लोभ से कही थी। वह यह दिखाना चाहती थी कि मैं तुम्हारे लड़कों को कितना चाहती हूँ। यह कोई बनावटी प्रेम न था। उसे लड़कों से सचमुच स्नेह था। उसके चरित्र में अभी तक बाल-भाव ही प्रधान था, उसमें वही उत्सुकता, वही चंचलता, वही विनोदप्रियता विद्यमान थी और बालकों के साथ उसकी बालवृत्तियाँ प्रस्फुटित होती थीं। पत्नी-सुलभ ईर्ष्या अभी तक उसके मन में उदय नहीं हुई थी, लेकिन पति के प्रसन्न होने के बदले नाक-भौंह सिकोड़ने का आशय न समझकर बोली—मैं क्या जानूँ, उनसे क्यों नहीं माँगते? मेरे पास आते हैं तो दुत्कार नहीं देती। अगर ऐसा करूँ तो यही होगा कि यह लड़कों को देखकर जलती है।

मुंशीजी ने इसका कुछ जवाब न दिया, लेकिन आज उन्होंने मुवक्किलों से बातें नहीं की, सीधे मंसाराम के पास गए और उसका इम्तिहान लेने लगे। यह जीवन में पहला ही अवसर था कि इन्होंने मंसाराम या किसी लड़के की शिक्षोन्नति के विषय में इतनी दिलचस्पी दिखाई हो। उन्हें अपने काम से सिर उठाने की फुरसत ही न मिलती थी। उन्हें इन विषयों को पढ़े हुए चालीस वर्ष के लगभग हो गए थे। तब से उनकी ओर आँख तक न उठाई थी। वह