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कानूनी पुस्तकों और पत्रों के सिवाय और कुछ पढ़ते ही न थे। इसका समय ही न मिलता, पर आज उन्हीं विषयों में मंसाराम की परीक्षा लेने लगे। मंसाराम जहीन था और इसके साथ ही मेहनती भी था। खेल में भी टीम का कैप्टन होने पर भी वह क्लास में प्रथम रहता था। जिस पाठ को एक बार देख लेता, पत्थर की लकीर हो जाती थी। मुंशीजी को उतावली में ऐसे मार्मिक प्रश्न तो सूझे नहीं, जिनके उत्तर देने में चतुर लड़के को भी कुछ सोचना पड़ता और ऊपरी प्रश्नों को मंसाराम ने चुटकियों में उड़ा दिया। कोई सिपाही अपने शत्रु पर वार खाली जाते देखकर जैसे झल्ला-झल्लाकर और भी तेजी से वार करता है, उसी भाँति मंसाराम के जवाबों को सुन-सुनकर वकील साहब भी झल्लाते थे। वह कोई ऐसा प्रश्न करना चाहते थे, जिसका जवाब मंसाराम से न बन पड़े। देखना चाहते थे कि इसका कमजोर पहलू कहाँ है। यह देखकर अब उन्हें संतोष न हो सकता था कि वह क्या करता है। वह यह देखना चाहते थे कि यह क्या नहीं कर सकता। कोई अभ्यस्त परीक्षक मंसाराम की कमजोरियों को आसानी से दिखा देता, पर वकील साहब अपनी आधी शताब्दी की भूली हुई शिक्षा के आधार पर इतने सफल कैसे होते? अंत में उन्हें अपना गुस्सा उतारने के लिए कोई बहाना न मिला तो बोले—मैं देखता हूँ, तुम सारे दिन इधर-उधर मटरगश्ती किया करते हो। मैं तुम्हारे चरित्र को तुम्हारी बुद्धि से बढ़कर समझता हूँ और तुम्हारा यों आवारा घूमना मुझे कभी गवारा नहीं हो सकता।

मंसाराम ने निर्भीकता से कहा-मैं शाम को एक घंटा खेलने के लिए जाने के सिवाय दिन भर कहीं नहीं जाता। आप अम्माँ या बुआजी से पूछ लें। मुझे खुद इस तरह घूमना पसंद नहीं। हाँ, खेलने के लिए हेड मास्टर साहब आग्रह करके बुलाते हैं तो मजबूरन जाना पड़ता है। अगर आपको मेरा खेलने जाना पसंद नहीं है तो कल से न जाऊँगा।

मुंशीजी ने देखा कि बातें दूसरे ही रुख पर जा रही हैं तो तीव्र स्वर में बोले-मुझे इस बात का इत्मीनान क्योंकर हो कि खेलने के सिवा कहीं नहीं घूमने जाते? मैं बराबर शिकायतें सुनता हूँ।

मंसाराम ने उत्तेजित होकर कहा—किन महाशय ने आपसे यह शिकायत की है, जरा मैं भी तो सुनूँ?

वकील-कोई भी हो, इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं। तुम्हें इतना विश्वास होना चाहिए कि मैं झूठा आक्षेप नहीं करता।

मंसाराम–अगर मेरे सामने कोई आकर कह दे कि मैंने इन्हें कहीं घूमते देखा है तो मुँह न दिखाऊँ।

वकील-किसी को ऐसी क्या गरज पड़ी है कि तुम्हारे मुँह पर तुम्हारी शिकायत करे और तुमसे बैर मोल ले? तुम अपने दो-चार साथियों को लेकर उसके घर की खपरैल फोड़ते फिरो। मुझसे इस किस्म की शिकायत एक आदमी ने नहीं, कई आदमियों ने की है और कोई वजह नहीं है कि मैं अपने दोस्तों की बात पर विश्वास न करूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम स्कूल ही में रहा करो।

मंसाराम ने मुँह गिराकर कहा-मुझे वहाँ रहने में कोई आपत्ति नहीं है, जब से कहिए, चला जाऊँ।

वकील-तुमने मुँह क्यों लटका लिया? क्या वहाँ रहना अच्छा नहीं लगता? ऐसा मालूम होता है, मानो वहाँ जाने के भय से तुम्हारी नानी मरी जा रही है। आखिर बात क्या है, वहाँ तुम्हें क्या तकलीफ होगी?

मंसाराम छात्रालय में रहने के लिए उत्सुक नहीं था, लेकिन जब मुंशीजी ने यह बात कह दी और इसका कारण पूछा, सो वह अपनी झेंप मिटाने के लिए प्रसन्नचित्त होकर बोला-मुँह क्यों लटकाऊँ? मेरे लिए जैसे घर वैसे बोर्डिंग हाउस। तकलीफ भी कोई नहीं और हो भी तो उसे सह सकता हूँ। मैं कल से चला जाऊँगा। हाँ, अगर जगह न खाली हुई तो मजबूरी है।

मुंशीजी वकील थे। समझ गए कि यह लौंडा कोई ऐसा बहाना ढूँढ़ रहा है, जिससे इसे वहाँ जाना न पड़े और