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कोई इलजाम भी सिर पर न आए। बोले-सब लड़कों के लिए जगह है, तुम्हारे ही लिए जगह न होगी?

मंसाराम-कितने ही लड़कों को जगह नहीं मिली और वे बाहर किराए के मकानों में पड़े हुए हैं। अभी बोर्डिंग हाउस में एक लड़के का नाम कट गया था तो पचास अर्जियाँ उस जगह के लिए आई थीं।

वकील साहब ने ज्यादा तर्क-वितर्क करना उचित नहीं समझा। मंसाराम को कल तैयार रहने की आज्ञा देकर अपनी बग्घी तैयार कराई और सैर करने चले गए। इधर कुछ दिनों से वह शाम को प्राय: सैर करने चले जाया करते थे। किसी अनुभवी प्राणी ने बतलाया था कि दीर्घ जीवन के लिए इससे बढ़कर कोई मंत्र नहीं है। उनके जाने के बाद मंसाराम आकर रुक्मिणी से बोला-बुआजी, बाबूजी ने मुझे कल से स्कूल में रहने को कहा है।

रुक्मिणी ने विस्मित होकर पूछा-क्यों?

मंसाराम—मैं क्या जानूँ? कहने लगे कि तुम यहाँ आवारों की तरह इधर-उधर फिरा करते हो।

रुक्मिणी-तूने कहा नहीं कि मैं कहीं नहीं जाता।

मंसाराम–कहा क्यों नहीं, मगर वह मानें भी।

रुक्मिणी-तुम्हारी नई अम्माँजी की कृपा होगी और क्या?

मंसाराम–नहीं बुआजी, मुझे उनपर संदेह नहीं है, वह बेचारी भूल से भी कभी कुछ नहीं कहतीं। कोई चीज माँगने जाता हूँ तो तुरंत उठाकर दे देती हैं।

रुक्मिणी-तू यह त्रिया-चरित्र क्या जाने, यह उन्हीं की लगाई हुई आग है। देख, मैं जाकर पूछती हूँ।

रुक्मिणी झल्लाई हुई निर्मला के पास जा पहुँची। उसे आड़े हाथों लेने का, काँटों में घसीटने का, तानों से छेदने का, रुलाने का सअवसर वह हाथ से न जाने देती थी। निर्मला उनका आदर करती थी, उनसे दबती थी, उनकी बातों का जवाब तक न देती थी। वह चाहती थी कि यह सिखावन की बातें कहें, जहाँ मैं भूलूँ, वहाँ सुधारें, सब कामों की देख-रेख करती रहें, पर रुक्मिणी उससे तनी ही रहती थी।

निर्मला चारपाई से उठकर बोली—आइए दीदी, बैठिए।

रुक्मिणी ने खड़े-खड़े कहा-मैं पूछती हूँ, क्या तुम सबको घर से निकालकर अकेले ही रहना चाहती हो?

निर्मला ने कातर भाव से कहा-क्या हुआ दीदीजी? मैंने तो किसी से कुछ नहीं कहा।

रुक्मिणी-मंसाराम को घर से निकाले देती हो, तिस पर कहती हो, मैंने तो किसी से कुछ नहीं कहा। क्या तुमसे इतना भी देखा नहीं जाता?

निर्मला-दीदीजी, तुम्हारे चरणों को छूकर कहती हूँ, मुझे कुछ नहीं मालूम। मेरी आँखें फूट जाएँ, अगर उसके विषय में मुँह तक खोला हो।

रुक्मिणी—क्यों व्यर्थ कसमें खाती हो। अब तक तोताराम कभी लड़के से नहीं बोलते थे। एक हफ्ते के लिए मंसाराम ननिहाल चला गया था तो इतने घबराए कि खुद जाकर लिवा लाए। अब इसी मंसाराम को घर से निकालकर स्कूल में रखे देते हैं। अगर लड़के का बाल भी बाँका हुआ तो तुम जानोगी। वह कभी बाहर नहीं रहा, उसे न खाने की सुध रहती है, न पहनने की—जहाँ बैठता, वहीं सो जाता है। कहने को तो जवान हो गया, पर स्वभाव बालकों-सा है। स्कूल में उसकी मरन हो जाएगी। वहाँ किसे फिक्र है कि इसने खाया या नहीं, कहाँ कपड़े उतारे, कहाँ सो रहा है। जब घर में कोई पूछने वाला नहीं तो बाहर कौन पूछेगा? मैंने तुम्हें चेता दिया, आगे तुम जानो, तुम्हारा काम जाने।