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कमरे की ओर गईं। वहाँ सन्नाटा था। मुंशी अभी न आए थे। यह सब देख-भालकर वह मंसाराम के कमरे के सामने जा पहुँची। कमरा खुला हुआ था। मंसाराम एक पुस्तक सामने रखे मेज पर सिर झुकाए बैठा हुआ था, मानो शोक और चिंता की सजीव मूर्ति हो। निर्मला ने पुकारना चाहा, पर उसके कंठ से आवाज न निकली।

सहसा मंसाराम ने सिर उठाकर द्वार की ओर देखा। निर्मला को देखकर अँधेरे में पहचान न सका। चौंककर बोला-कौन?

निर्मला ने काँपते हुए स्वर में कहा-मैं हूँ। भोजन करने क्यों नहीं चल रहे हो? कितनी रात गई।

मंसाराम ने मुँह फेरकर कहा-मुझे भूख नहीं है।

निर्मला—यह तो मैं तीन बार भंगी से सुन चुकी हूँ।

मंसाराम-तो चौथी बार मेरे मुँह से सुन लीजिए।

निर्मला-शाम को भी तो कुछ नहीं खाया था, भूख क्यों नहीं लगी?

मंसाराम ने व्यंग्य की हँसी हँसकर कहा-बहुत भूख लगेगी तो आएगा कहाँ से?

यह कहते-कहते मंसाराम ने कमरे का द्वार बंद करना चाहा, लेकिन निर्मला किवाड़ों को हटाकर कमरे में चली आई और मंसाराम का हाथ पकड़ सजल नेत्रों से विनय-मधुर स्वर में बोली-मेरे कहने से चलकर थोड़ा सा खा लो। तुम न खाओगे तो मैं भी जाकर सो रहूँगी। दो ही कौर खा लेना। क्या मुझे रात भर भूखों मारना चाहते हो?

मंसाराम सोच में पड़ गया। अभी भोजन नहीं किया, मेरे ही इंतजार में बैठी रहीं। यह स्नेह, वात्सल्य और विनय की देवी हैं या ईर्ष्या और अमंगल की मायाविनी मूर्ति? उसे अपनी माता का स्मरण हो आया। जब वह रूठ जाता था तो वे भी इसी तरह मनाने आ जाया करती थीं और जब तक वह न जाता था, वहाँ से न उठती थीं। वह इस विनय को अस्वीकार न कर सका। बोला–मेरे लिए आपको इतना कष्ट हुआ, इसका मुझे खेद है। मैं जानता कि आप मेरे इंतजार में भूखी बैठी हैं तो तभी खा आया होता।

निर्मला ने तिरस्कार-भाव से कहा यह तुम कैसे समझ सकते थे कि तुम भूखे रहोगे और मैं खाकर सो रहँगी? क्या विमाता का नाता होने से ही मैं ऐसी स्वार्थिनी हो जाऊँगी?

सहसा मर्दाने कमरे में मुंशीजी के खाँसने की आवाज आई। ऐसा मालूम हुआ कि वह मंसाराम के कमरे की ओर आ रहे हैं। निर्मला के चेहरे का रंग उड़ गया। वह तुरंत कमरे से निकल गई और भीतर जाने का मौका न पाकर कठोर स्वर में बोली-मैं लौंडी नहीं हूँ कि इतनी रात तक किसी के लिए रसोई के द्वार पर बैठी रहूँ। जिसे न खाना हो, वह पहले ही कह दिया करे।

मुंशीजी ने निर्मला को वहाँ खड़े देखा। यह अनर्थ। यह यहाँ क्या करने आ गई? बोले यहाँ क्या कर रही हो?

निर्मला ने कर्कश स्वर में कहा—कर क्या रही हूँ, अपने भाग्य को रो रही हूँ। बस, सारी बुराइयों की जड़ मैं ही हूँ। कोई इधर रूठा है, कोई उधर मुँह फुलाए खड़ा है। किस-किस को मनाऊँ और कहाँ तक मनाऊँ।

मुंशीजी कुछ चकित होकर बोले—बात क्या है? निर्मला—भोजन करने नहीं जाते और क्या बात है? दस दफे महरी को भेजी, आखिर आप दौड़ी आईं। इन्हें तो इतना कह देना आसान है, मुझे भूख नहीं है, यहाँ तो घर भर की लौंडी हूँ, सारी दुनिया मुँह में कालिख पोतने को तैयार। किसी को भूख न हो, पर कहने वालों को यह कहने से कौन रोकेगा कि पिशाचिनी किसी को खाना नहीं देती।

मुंशीजी ने मंसाराम से कहा-खाना क्यों नहीं खा लेते जी? जानते हो क्या वक्त है?

मंसाराम स्तब्ध-सा खड़ा था। उसके सामने एक ऐसा रहस्य हो रहा था, जिसका मर्म वह कुछ भी न समझ