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सकता था। जिन नेत्रों में एक क्षण पहले विनय के आँसू भरे हुए थे, उनमें अकस्मात् ईर्ष्या की ज्वाला कहाँ से आ गई? जिन अधरों से एक क्षण पहले सुधा-वृष्टि हो रही थी, उनमें से विष प्रवाह क्यों होने लगा? उसी अर्ध चेतना की दशा में बोला-मुझे भूख नहीं है।

मुंशीजी ने घुड़ककर कहा-क्यों भूख नहीं है? भूख नहीं थी तो शाम को क्यों न कहला दिया? तुम्हारी भूख के इंतजार में कौन सारी रात बैठा रहे? तुममें पहले तो यह आदत न थी। रूठना कब से सीख लिया? जाकर खा लो।

मंसाराम-जी नहीं, मुझे जरा भी भूख नहीं है।

तोताराम ने दाँत पीसकर कहा—अच्छी बात है, जब भूख लगे, तब खाना। यह कहते हुए वह अंदर चले गए। निर्मला भी उनके पीछे ही चली गई। मुंशीजी तो लेटने चले गए, उसने जाकर रसोई उठा दी और कुल्लाकर, पान खा मुसकराती हुई आ पहुँची। मुंशीजी ने पूछा-खाना खा लिया न?

निर्मला-क्या करती, किसी के लिए अन्न-जल छोड़ दूंगी?

मुंशीजी—इसे न जाने क्या हो गया है, कुछ समझ में नहीं आता? दिन-दिन घुलता चला जाता है, दिन भर उसी कमरे में पड़ा रहता है।

निर्मला कुछ न बोली। वह चिंता के अपार सागर में डुबकियाँ खा रही थी। मंसाराम ने मेरे भाव-परिवर्तन को देखकर दिल में क्या-क्या समझा होगा? क्या उसके मन में यह प्रश्न उठा होगा कि पिताजी को देखते ही इसकी त्योरियाँ क्यों बदल गईं? इसका कारण भी क्या उसकी समझ में आ गया होगा? बेचारा खाने आ रहा था, तब तक यह महाशय न जाने कहाँ से टपक पड़े? इस रहस्य को उसे कैसे समझाऊँ, समझाना संभव भी है? मैं किस विपत्ति में फँस गई?

सवेरे वह उठकर घर के काम-धंधे में लगी। सहसा नौ बजे भुंगी ने आकर कहा-मंसा बाबू तो अपने कागज-पत्तर सब इक्के पर लाद रहे हैं। नँगी–मैंने पूछा तो बोले, अब स्कूल में ही रहूँगा।

मंसाराम प्रात:काल उठकर अपने स्कूल के हेडमास्टर साहब के पास गया था और अपने रहने का प्रबंध कर आया था। हेडमास्टर साहब ने पहले तो कहा-यहाँ जगह नहीं है, तुमसे पहले के कितने ही लड़कों के प्रार्थना-पत्र पड़े हुए हैं, लेकिन जब मंसाराम ने कहा-मुझे जगह न मिलेगी तो कदाचित् मेरा पढ़ना न हो सके और मैं इम्तहान में शरीक न हो सकूँ तो हेडमास्टर साहब को हार माननी पड़ी। मंसाराम के प्रथम श्रेणी में पास होने की आशा थी। अध्यापकों को विश्वास था कि वह उस शाला की कीर्ति को उज्ज्वल करेगा। हेडमास्टर साहब ऐसे लड़कों को कैसे छोड़ सकते थे? उन्होंने अपने दफ्तर का कमरा खाली करा दिया, इसीलिए मंसाराम वहाँ से आते ही अपना सामान इक्के पर लादने लगा।

मुंशीजी ने कहा—अभी ऐसी क्या जल्दी है? दो-चार दिन में चले जाना। मैं चाहता हूँ, तुम्हारे लिए कोई अच्छा सा रसोइया ठीक कर दूँ।

मंसाराम-वहाँ का रसोइया बहुत अच्छा भोजन पकाता है।

मुंशीजी-अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना। ऐसा न हो कि पढ़ने के पीछे स्वास्थ्य खो बैठो।

मंसाराम-वहाँ नौ बजे के बाद कोई पढ़ने नहीं पाता और सबको नियम के साथ खेलना पड़ता है।

मुंशीजी-बिस्तर क्यों छोड़ देते हो? सोओगे किस पर?

मंसाराम-कंबल लिए जाता हूँ। बिस्तर की जरूरत नहीं।

मुंशीजी-कहार जब तक तुम्हारा सामान रख रहा है, जाकर कुछ खा लो। रात भी तो कुछ नहीं खाया था।