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मंसाराम वहीं खा लूँगा। रसोइए से भोजन बनाने को कह आया हूँ। यहाँ खाने लगूँगा तो देर होगी।

घर में जियाराम और सियाराम भी भाई के साथ जाने की जिद कर रहे थे। निर्मला उन दोनों को बहला रही थीबेटा, वहाँ छोटे नहीं रहते, सब काम अपने ही हाथ से करना पड़ता है...।

एकाएक रुक्मिणी ने आकर कहा तुम्हारा वज्र का हृदय है, महारानी। लड़के ने रात भी कुछ नहीं खाया, इस वक्त भी बिना खाय-पिए चला जा रहा है और तुम लड़कों को लिए बातें कर रही हो? उसको तुम जानती नहीं हो। यह समझ लो कि वह स्कूल नहीं जा रहा है, बनवास ले रहा है, लौटकर फिर न आएगा। यह उन लड़कों में नहीं है, जो खेल में मार भूल जाते हैं। बात उसके दिल पर पत्थर की लकीर हो जाती है।

निर्मला ने कातर स्वर में कहा-क्या करूँ, दीदीजी? वह किसी की सुनते ही नहीं। आप जरा जाकर बुला लें। आपके बुलाने से आ जाएँगे। रुक्मिणी-आखिर हुआ क्या, जिस पर भागा जाता है? घर से उसका जी कभी उचाट न होता था। उसे तो अपने घर के सिवा और कहीं अच्छा ही न लगता था। तुम्हीं ने उसे कुछ कहा होगा या उसकी कुछ शिकायत की होगी। क्यों अपने लिए काँटे बो रही हो? रानी, घर को मिट्टी में मिलाकर चैन से न बैठने पाओगी।

निर्मला ने रोकर कहा-मैंने उन्हें कुछ कहा हो तो मेरी जबान कट जाए। हाँ, सौतेली माँ होने के कारण बदनाम तो हूँ ही। आपके हाथ जोड़ती हूँ, जरा जाकर उन्हें बुला लाइए।

रुक्मिणी ने तीव्र स्वर में कहा तुम क्यों नहीं बुला लाती? क्या छोटी हो जाओगी? अपना होता तो क्या इसी तरह बैठी रहती?

निर्मला की दशा उस पंखहीन पक्षी की तरह हो रही थी, जो सर्प को अपनी ओर आते देख कर उड़ना चाहता है, पर उड़ नहीं सकता, उछलता है और गिर पड़ता है, पंख फड़फड़ाकर रह जाता है। उसका हृदय अंदर-ही-अंदर तड़प रहा था, पर बाहर न जा सकती थी।

इतने में दोनों लड़के आकर बोले-भैयाजी चले गए।

निर्मला मूर्तिवत् खड़ी रही, मानो संज्ञाहीन हो गई हो। चले गए? घर में आए तक नहीं, मुझसे मिले तक नहीं। चले गए! मुझसे इतनी घृणा! मैं उनकी कोई न सही, उनकी बुआ तो थीं। उनसे तो मिलने आना चाहिए था? मैं यहाँ थी न। अंदर कैसे कदम रखते? मैं देख लेती न। इसीलिए चले गए।

9.

मंसाराम के जाने से घर सूना हो गया। दोनों छोटे लड़के उसी स्कूल में पढ़ते थे। निर्मला रोज उनसे मंसाराम का हाल पूछती। आशा थी कि छुट्टी के दिन वह आएगा, लेकिन जब छुट्टी के दिन गुजर गए और वह न आया तो निर्मला की तबीयत घबराने लगी। उसने उसके लिए मूँग के लड्डू बना रखे थे। सोमवार को प्रात: भंगी को लड्डू देकर मदरसे भेजा। नौ बजे नँगी लौट आई। मंसाराम ने लड्डू ज्यों-के-त्यों लौटा दिए थे।

निर्मला ने पूछा-पहले से कुछ हरे हुए हैं, रे?

भूँगी-हरे-वरे तो नहीं हुए और सूख गए हैं।

निर्मला-क्या जी अच्छा नहीं है?

भूँगी-यह तो मैंने नहीं पूछा बहूजी, झूठ क्यों बोलूँ? हाँ, वहाँ का कहार मेरा देवर लगता है। वह कहता था कि तुम्हारे बाबूजी की खुराक कुछ नहीं है। दो फुलकियाँ खाकर उठ जाते हैं, फिर दिन भर कुछ नहीं खाते। हरदम