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आखिर दोनों साथ-साथ निकले, लेकिन बाहर आते ही बलवान ने निर्बल को दबा लिया। केवल इतना मुँह से निकला-कोई खास बात नहीं थी। आप तो उधर जा ही रहे हैं।

मुंशीजी—मैंने लड़कों से पूछा था तो वे कहते थे, कल बैठे पढ़ रहे थे, आज न जाने क्या हो गया।

निर्मला ने आवेश से काँपते हुए कहा—यह सब आप कर रहे हैं।

मुंशीजी ने त्योरियाँ बदलकर कहा-मैं कर रहा हूँ? मैं क्या कर रहा हूँ?

निर्मला-अपने दिल से पूछिए।।

मुंशीजी-मैंने तो यही सोचा था कि यहाँ उसका पढ़ने में जी नहीं लगता, वहाँ और लड़कों के साथ कम-से-कम पढ़ेगा ही। यह तो बुरी बात न थी और मैंने क्या किया?

निर्मला-खूब सोचिए, इसीलिए आपने उन्हें वहाँ भेजा था? आपके मन में और कोई बात न थी? मुंशीजी जरा हिचकिचाए और अपनी दुर्बलता को छिपाने के लिए मुसकराने की चेष्टा करके बोले और क्या बात हो सकती थी? भला तुम्हीं सोचो।

निर्मला-खैर, यही सही। अब आप कृपा करके उन्हें आज ही लेते आइएगा, वहाँ रहने से उनकी बीमारी बढ़ जाने का भय है। यहाँ दीदीजी जितनी तीमारदारी कर सकती हैं, दूसरा नहीं कर सकता।

एक क्षण के बाद उसने सिर नीचा करके कहा—मेरे कारण न लाना चाहते हों तो मुझे घर भेज दीजिए। मैं वहाँ आराम से रहूँगी।

मुंशीजी ने इसका कुछ जवाब न दिया। बाहर चले गए और एक क्षण में गाड़ी स्कूल की ओर चली।

मन! तेरी गति कितनी विचित्र है, कितनी रहस्य से भरी हई, कितनी दर्भेद्य। त कितनी जल्द रंग बदलता है? इस कला में तू निपुण है। आतिशबाजी की चर्बी को भी रंग बदलते कुछ देरी लगती है, पर तुझे रंग बदलने में उसका लक्षांश समय भी नहीं लगता। जहाँ अभी वात्सल्य था, वहाँ फिर संदेह ने आसन जमा लिया।

वह सोचते थे—कहीं उसने बहाना तो नहीं किया है?

10.

मंसाराम दो दिन तक गहरी चिंता में डूबा रहा। बार-बार अपनी माता की याद आती, न खाना अच्छा लगता, न पढ़ने ही में जी लगता। उसकी कायापलट-सी हो गई। दो दिन गुजर गए और छात्रालय में रहते हुए भी उसने वह काम न किया, जो स्कूल के मास्टरों ने घर से कर लाने को दिया था। परिणामस्वरूप उसे बेंच पर खड़ा रहना पड़ा। जो बात कभी न हुई थी, वह आज हो गई। यह असह्य अपमान भी उसे सहना पड़ा।

तीसरे दिन वह इन्हीं चिंताओं में मगन हुआ अपने मन को समझा रहा था—क्या संसार में अकेले मेरी ही माता मरी हैं? विमाताएँ तो सभी इसी प्रकार की होती हैं। मेरे साथ कोई नई बात नहीं हो रही है। अब मुझे पुरुषों की भाँति दुगने परिश्रम से अपना काम करना चाहिए, जैसे माता-पिता राजी रहें, वैसे उन्हें राजी रखना चाहिए। इस साल अगर छात्रवृत्ति मिल गई तो मुझे घर से कुछ लेने की जरूरत ही न रहेगी। कितने ही लड़के अपने ही बल पर बड़ी-बड़ी उपाधियाँ प्राप्त कर लेते हैं। भाग्य के नाम को रोने-कोसने से क्या होगा।

इतने में जियाराम आकर खड़ा हो गया।

मंसाराम ने पूछा घर का क्या हाल है जिया? नई अम्माँजी तो बहुत प्रसन्न होंगी?

जियाराम-उनके मन का हाल तो मैं नहीं जानता, लेकिन जब से तुम आए हो, उन्होंने एक जून भी खाना नहीं