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खाया। जब देखो, तब रोया करती हैं। जब बाबूजी आते हैं, तब अलबत्ता हँसने लगती हैं। तुम चले आए तो मैंने भी शाम को अपनी किताबें सँभाली! यहीं तुम्हारे साथ रहना चाहता था। भूँगी चुड़ैल ने जाकर अम्माँजी से कह दिया। बाबूजी बैठे थे, उनके सामने ही अम्माँजी ने आकर मेरी किताबें छीन ली और रोकर बोलीं, तुम भी चले जाओगे तो इस घर में कौन रहेगा? अगर मेरे कारण तुम लोग घर छोड़-छोड़कर भागे जा रहे हो, तो लो, मैं ही कहीं चली जाती हूँ। मैं तो झल्लाया हुआ था ही, वहाँ अब बाबूजी भी न थे, बिगड़कर बोला-आप क्यों कहीं चली जाएँगी? आपका तो घर है, आप आराम से रहिए। गैर तो हमीं लोग हैं, हम न रहेंगे, तब तो आपको आराम-आराम ही होगा।

मंसाराम-तुमने खूब कहा, बहुत ही अच्छा कहा। इस पर और भी झल्लाई होंगी और जाकर बाबूजी से शिकायत की होगी।

जियाराम-नहीं, यह कुछ नहीं हुआ। बेचारी जमीन पर बैठकर रोने लगीं। मुझे भी करुणा आ गई। मैं भी रो पड़ा। उन्होंने आँचल से मेरे आँसू पोंछे और बोलीं, जिया! मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँ कि मैंने तुम्हारे भैया के विषय में तुम्हारे बाबूजी से एक शब्द भी नहीं कहा। मेरे भाग में कलंक लिखा हुआ है, वही भोग रही हूँ। फिर और न जाने क्या-क्या कहा, जो मेरी समझ में नहीं आया। कुछ बाबूजी की बात थी।

मंसाराम ने उद्विग्नता से पूछा-बाबूजी के विषय में क्या कहा? कुछ याद है?

जियाराम बातें तो भई, मुझे याद नहीं आती। मेरी 'मेमोरी' कौन बड़ी है, लेकिन उनकी बातों का मतलब कुछ ऐसा मालूम होता था कि उन्हें बाबूजी को प्रसन्न रखने के लिए यह स्वाँग भरना पड़ रहा है। न जाने धर्म-अधर्म की कैसी बातें करती थीं, जो मैं बिल्कुल न समझ सका। मुझे तो अब इसका विश्वास आ गया है कि उनकी इच्छा तुम्हें यहाँ भेजने की न थी।

मंसाराम-तुम इन चालों का मतलब नहीं समझ सकते। ये बड़ी गहरी चालें हैं।

जियाराम-तुम्हारी समझ में होंगी, मेरी समझ में नहीं हैं।

मंसाराम-जब तुम ज्योमेट्री नहीं समझ सकते तो इन बातों को क्या समझ सकोगे? उस रात को जब मुझे खाना खाने के लिए बुलाने आई थीं और उनके आग्रह पर मैं जाने को तैयार भी हो गया था, उस वक्त बाबूजी को देखते ही उन्होंने जो कैंडा बदला, वह क्या मैं कभी भी भूल सकता हूँ?

जियाराम यही बात मेरी समझ में नहीं आती। अभी कल ही मैं यहाँ से गया तो लगीं तुम्हारा हाल पूछने। मैंने कहा, वह तो कहते थे कि अब कभी इस घर में कदम न रखूगा। मैंने कुछ झूठ तो कहा नहीं, तुमने मुझसे कहा ही था। इतना सुनना था कि फूट-फूटकर रोने लगीं। मैं दिल में बहुत पछताया कि कहाँ-से-कहाँ मैंने यह बात कह दी। बार-बार यही कहती थीं, क्या वह मेरे कारण घर छोड़ देंगे? मुझसे इतने नाराज हैं, चले गए और मुझसे मिले तक नहीं। खाना तैयार था, खाने तक नहीं आए। हाय! मैं क्या बताऊँ, किस विपत्ति में हूँ। इतने में बाबूजी आ गए। बस तुरंत आँखें पोंछकर मुसकराती हुई उनके पास चली गईं। यह बात मेरी समझ में नहीं आती। आज मुझे बड़ी मिन्नत की कि उनको साथ लेते आना। आज मैं तुम्हें खींच ले चलूँगा। दो दिन में वह कितनी दुबली हो गई हैं, तुम्हें यह देखकर उनपर दया आई। तो चलोगे न?

मंसाराम ने कुछ जवाब न दिया। उसके पैर काँप रहे थे। जियाराम तो हाजिरी की घंटी सुनकर भागा, पर वह बेंच पर लेट गया और इतनी लंबी साँस ली, मानो बहुत देर से उसने साँस ही नहीं ली है। उसके मुख से दुस्सह वेदना में डूबे हुए शब्द निकले हाय ईश्वर! इस नाम के सिवाय उसे अपना जीवन निराधार मालूम होता था। इस एक उच्छवास में कितना नैराश्य था, कितनी संवेदना, कितनी करुणा, कितनी दीन-प्रार्थना भरी हुई थी, इसका कौन अनुमान कर सकता है। अब सारा रहस्य उसकी समझ में आ रहा था और बार-बार उसका पीडित हृदय आर्तनाद