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सहसा वकील साहब की आवाज सुनकर वह चौंक पड़ा। हाँ, वकील साहब की आवाज थी। उसने लिहाफ फेंक दिया और चारपाई से उतरकर नीचे खड़ा हो गया। उसके मन में एक आवेग हुआ कि इस वक्त इनके सामने प्राण दे दूँ। उसे ऐसा मालूम हुआ कि मैं मर जाऊँ तो इन्हें सच्ची खुशी होगी। शायद इसीलिए वह देखने आए हैं कि मेरे मरने में कितनी देर है।

वकील साहब ने उसका हाथ पकड़ लिया, जिससे वह गिर न पड़े और पूछा-कैसी तबीयत है लल्लू। लेटे क्यों न रहे? लेट न जाओ, तुम खड़े क्यों हो गए?

मंसाराम–मेरी तबीयत तो बहुत अच्छी है। आपको व्यर्थ ही कष्ट हुआ। मुंशीजी ने कुछ जवाब न दिया। लड़के की दशा देखकर उनकी आँखों से आँसू निकल आए। वह हृष्ट-पुष्ट बालक, जिसे देखकर चित्त प्रसन्न हो जाता था, अब सूखकर काँटा हो गया था। पाँच-छह दिन में ही वह इतना दुबला हो गया था कि उसे पहचानना कठिन था। मुंशीजी ने उसे आहिस्ता से चारपाई पर लिटा दिया और लिहाफ अच्छी तरह उसे उढ़ाकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। कहीं लड़का हाथ से तो नहीं जाएगा। यह खयाल करके वह शोक-विह्वल हो गए और स्टूल पर बैठकर फूट-फूटकर रोने लगे। मंसाराम भी लिहाफ में मुँह लपेटे रो रहा था। अभी थोड़े ही दिनों पहले उसे देखकर पिता का हृदय गर्व से फूल उठता था, लेकिन आज उसे इस दारुण दशा में देखकर भी वह सोच रहे हैं कि इसे घर ले चलूँ या नहीं। क्या यहाँ दवा नहीं हो सकती? मैं यहाँ चौबीसों घंटे बैठा रहूँगा। डॉक्टर साहब यहाँ हैं ही। कोई दिक्कत न होगी। घर ले चलने में उन्हें बाधाएँ-ही-बाधाएँ दिखाई देती थीं। सबसे बड़ा भय यह था कि वहाँ निर्मला इसके पास हरदम बैठी रहेगी और मैं मना न कर सकूँगा, यह उनके लिए असह्य था।

इतने में अध्यक्ष ने आकर कहा-मैं तो समझता हूँ कि आप इन्हें अपने साथ ले जाएँ। गाड़ी है ही, कोई तकलीफ न होगी। यहाँ अच्छी तरह देखभाल न हो सकेगी।

मुंशीजी-हाँ, आया तो मैं इसी खयाल से था, लेकिन इनकी हालत बहुत ही नाजुक मालूम होती है। जरा सी असावधानी होने से सरसाम हो जाने का भय है।

अध्यक्ष-यहाँ से इन्हें ले जाने में थोड़ी सी दिक्कत जरूर है, लेकिन यह तो आप खुद सोच सकते हैं कि घर पर जो आराम मिल सकता है, वह यहाँ किसी तरह नहीं मिल सकता। इसके अतिरिक्त किसी बीमार लड़के को यहाँ रखना नियम-विरुद्ध भी है।

मुंशीजी—कहिए तो मैं हेडमास्टर से आज्ञा ले लूँ। मुझे इनका यहाँ से इस हालत में ले जाना किसी तरह मुनासिब नहीं मालूम होता।

अध्यक्ष ने हेडमास्टर का नाम सुना, तो समझे कि यह महाशय धमकी दे रहे हैं। जरा तिनककर बोले हेडमास्टर नियम-विरुद्ध कोई बात नहीं कर सकते। मैं इतनी बड़ी जिम्मेदारी कैसे ले सकता हूँ?

अब क्या हो? क्या घर ले जाना ही पड़ेगा? यहाँ रखने का तो यह बहाना था कि ले जाने से बीमारी बढ़ जाने की शंका है। यहाँ से ले जाकर हस्पताल में ठहराने का कोई बहाना नहीं है। जो सुनेगा, वह यही कहेगा कि डॉक्टर की फीस बचाने के लिए लड़के को अस्पताल फेंक आए, पर अब ले जाने के सिवा और कोई उपाय न था। अगर अध्यक्ष महोदय इस वक्त रिश्वत लेने पर तैयार हो जाते तो शायद दो-चार साल का वेतन ले लेते, लेकिन कायदे के पाबंद लोगों में इतनी बुद्धि, इतनी चतुराई कहाँ? अगर इस वक्त मुंशीजी को कोई आदमी ऐसा सुझाव देता, जिसमें उन्हें मंसाराम को घर न ले जाना पड़े तो वह आजीवन उसका एहसान मानते। सोचने का समय भी न था। अध्यक्ष महोदय शैतान की तरह सिर पर सवार थे। विवश होकर मुंशीजी ने दोनों साईसों को बुलाया और मंसाराम को उठाने लगे। मंसाराम अर्धचेतना की दशा में था, चौंककर बोला-क्या है? कौन है?