पृष्ठ:निर्मला.pdf/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

मुंशीजी—कोई नहीं है बेटा, मैं तुम्हें घर ले चलना चाहता हूँ, आओ, गोद में उठा लूँ।

मंसाराम-मुझे क्यों घर ले चलते हैं? मैं वहाँ नहीं जाऊँगा।

मुंशीजी—यहाँ तो रह नहीं सकते, नियम ही ऐसा है।

मंसाराम-कुछ भी हो, वहाँ न जाऊँगा। मुझे और कहीं ले चलिए, किसी पेड़ के नीचे, किसी झोपड़े में, जहाँ चाहे रखिए, पर घर पर न ले चलिए।

अध्यक्ष ने मुंशीजी से कहा-आप इन बातों का खयाल न करें, यह तो होश में नहीं है।

मंसाराम-कौन होश में नहीं है? मैं होश में नहीं हूँ? किसी को गालियाँ देता हूँ? दाँत काटता हूँ? क्यों होश में नहीं हूँ? मुझे यहीं पड़ा रहने दीजिए, जो कुछ होना होगा, यहीं होगा, अगर ऐसा है, तो मुझे अस्पताल ले चलिए, मैं वहाँ पड़ा रहूँगा। जीना होगा, जिऊँगा, मरना होगा, मरूँगा, लेकिन घर किसी तरह भी न जाऊँगा।

यह जोर पाकर मुंशीजी फिर अध्यक्ष की मिन्नतें करने लगे, लेकिन वह कायदे का पाबंद आदमी कुछ सुनता ही न था। अगर छूत की बीमारी हुई और किसी दूसरे लड़के को छूत लग गई तो कौन उसका जवाबदेह होगा। इस तर्क के सामने मुंशीजी की कानूनी दलीलें भी मात हो गई।

आखिर मुंशीजी ने मंसाराम से कहा-बेटा, तुम्हें घर चलने से क्यों इनकार हो रहा है? वहाँ तो सभी तरह का आराम रहेगा। मुंशीजी ने कहने को तो यह बात कह दी, लेकिन डर रहे थे कि कहीं सचमुच मंसाराम चलने पर राजी न हो जाए। मंसाराम को अस्पताल में रखने का कोई बहाना खोज रहे थे और उसकी जिम्मेदारी मंसाराम ही के सिर डालना चाहते थे। यह अध्यक्ष के सामने की बात थी, वह इस बात की साक्षी दे सकते थे कि मंसाराम अपनी जिद से अस्पताल जा रहा है। मुंशीजी का इसमें लेशमात्र भी दोष नहीं है।

मंसाराम ने झल्लाकर कहा-नहीं, नहीं, सौ बार नहीं, मैं घर नहीं जाऊँगा। मुझे अस्पताल ले चलिए और घर के सब आदमियों को मना कर दीजिए कि मुझे देखने न आएँ। मुझे कुछ नहीं हुआ है, बिल्कुल बीमार नहीं हूँ। आप मुझे छोड़ दीजिए, मैं अपने पाँव से चल सकता हूँ।

वह उठ खड़ा हुआ और उन्मत्त की भाँति द्वार की ओर चला, लेकिन पैर लड़खड़ा गए। यदि मुंशीजी ने सँभाल न लिया होता तो उसे बड़ी चोट आती। दोनों नौकरों की मदद से मुंशीजी उसे बग्घी के पास लाए और अंदर बैठा दिया।

गाड़ी अस्पताल की ओर चली। वही हुआ, जो मुंशीजी चाहते थे। इस शोक में भी उनका चित्त संतुष्ट था। लड़का अपनी इच्छा से अस्पताल जा रहा था। क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं था कि घर में इसे कोई स्नेह नहीं है? क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि मंसाराम निर्दोष है? वह उसके ऊपर अकारण ही भ्रम कर रहे थे।

लेकिन जरा ही देर में इस तुष्टि की जगह उनके मन में ग्लानि का भाव जाग्रत् हुआ। वह अपने प्राण-प्रिय पुत्र को घर न ले जाकर अस्पताल लिए जा रहे थे। उनके विशाल भवन में उनके पुत्र के लिए जगह न थी, इस दशा में भी, जबकि उसका जीवन संकट में पड़ा हुआ था। कितनी विडंबना है!

एक क्षण के बाद एकाएक मुंशीजी के मन में प्रश्न उठा-कहीं मंसाराम उनके भावों को ताड़ तो नहीं गया? इसीलिए तो उसे घर से घृणा नहीं हो गई है? अगर ऐसा है तो गजब हो जाएगा।

उस अनर्थ की कल्पना ही से मुंशीजी के रोएँ खड़े हो गए और कलेजा धक् धक् करने लगा। हृदय में एक धक्का-सा लगा। अगर इस ज्वर का यही कारण है, तो ईश्वर ही मालिक है। इस समय उनकी दशा अत्यंत दयनीय थी। वह आग, जो उन्होंने अपने ठिठुरे हुए हाथों को सेंकने के लिए जलाई थी, अब उनके घर में लगी जा रही थी। इस करुणा, शोक, पश्चाताप और शंका से उनका चित्त घबरा उठा। उनके गुप्त रोदन की ध्वनि बाहर निकल