पृष्ठ:निर्मला.pdf/५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

सकती तो सुनने वाले रो पड़ते। उनके आँसू बाहर निकल सकते तो उनका तार बँध जाता। उन्होंने पुत्र के वर्ण-हीन मुख की ओर एक वात्सल्यपूर्ण नेत्रों से देखा, वेदना से विकल होकर उसे छाती से लगा लिया और इतना रोए कि हिचकी बंध गई।

सामने अस्पताल का फाटक दिखाई दे रहा था।

11.

मुशी तोताराम संध्या समय कचहरी से घर पहुंचे तो निर्मला ने पूछा-उन्हें देखा, क्या हाल है? मुंशीजी ने देखा कि निर्मला के मुख पर नाममात्र को भी शोक या चिंता का चिह्न नहीं है। उसका बनाव-सिंगार और दिनों से भी कुछ गाढ़ा हुआ है। मसलन वह गले का हार न पहनती थी, पर आज वह भी गले में शोभा दे रहा था। झूमर से भी उसे बहुत प्रेम था, वह आज वह भी महीन रेशमी साड़ी के नीचे, काले-काले केशों के ऊपर, फानुस के दीपक की भाँति चमक रहा था।

मुंशीजी ने मुँह फेरकर कहा–बीमार है और क्या हाल बताऊँ?

निर्मला-तुम तो उन्हें यहाँ लाने गए थे?

मुंशीजी ने झुंझलाकर कहा—वह नहीं आता तो क्या मैं जबरदस्ती उठा लाता? कितना समझाया कि बेटा घर चलो, वहाँ तुम्हें कोई तकलीफ न होने पावेगी, लेकिन घर का नाम सुनकर उसे जैसे दूना ज्वर हो जाता था। कहने लगा-मैं यहाँ मर जाऊँगा, लेकिन घर न जाऊँगा। आखिर मजबूर होकर अस्पताल पहुँचा आया और क्या करता?

रुक्मिणी भी आकर बरामदे में खड़ी हो गई थी। बोलीं-वह जन्म का हठी है, यहाँ किसी तरह न आएगा और यह भी देख लेना, वहाँ अच्छा भी न होगा?

मुंशीजी ने कातर स्वर में कहा तुम दो-चार दिन के लिए वहाँ चली जाओ तो बड़ा अच्छा हो बहन, तुम्हारे रहने से उसे तस्कीन होती रहेगी। मेरी बहन, मेरी यह विनय मान लो। अकेले वह रो-रोकर प्राण दे देगा। बस, हाय अम्मा! हाय अम्मा की रट लगाकर रोया करता है। मैं वहीं जा रहा हूँ, मेरे साथ ही चलो। उसकी दशा अच्छी नहीं। बहन, वह सूरत ही नहीं रही। देखें ईश्वर क्या करते हैं?

यह कहते-कहते मुंशीजी की आँखों से आँसू बहने लगे, लेकिन रुक्मिणी अविचलित भाव से बोली—मैं जाने को तैयार हूँ। मेरे वहाँ रहने से अगर मेरे लाल के प्राण बच जाएँ तो मैं सिर के बल दौड़ी जाऊँ, लेकिन मेरा कहना गिरह में बाँध लो भैया, वहाँ वह अच्छा न होगा। मैं उसे खूब पहचानती हूँ। उसे कोई बीमारी नहीं है, केवल घर से निकाले जाने का शोक है। यही दुःख ज्वर के रूप में प्रकट हुआ है। तुम एक नहीं, लाख दवा करो, सिविल सर्जन को ही क्यों न दिखाओ, उसे कोई दवा असर न करेगी।

मुंशीजी-बहन, उसे घर से निकाला किसने है? मैंने तो केवल उसकी पढ़ाई के खयाल से उसे वहाँ भेजा था।

रुक्मिणी-तुमने चाहे जिस खयाल से भेजा हो, लेकिन यह बात उसे लग गई। मैं तो अब किसी गिनती में नहीं हूँ, मुझे किसी बात में बोलने का कोई अधिकार नहीं। मालिक तुम, मालकिन तुम्हारी स्त्री। मैं तो केवल तुम्हारी रोटियों पर पड़ी हुई अभागिनी विधवा हूँ। मेरी कौन सुनेगा और कौन परवाह करेगा? लेकिन बिना बोले रहा नहीं जाता। मंसा तभी अच्छा होगा, जब घर आएगा। जब तुम्हारा हृदय वही हो जाएगा, जो पहले था।

यह कहकर रुक्मिणी वहाँ से चली गई। उनकी ज्योतिहीन, पर अनुभवपूर्ण आँखों के सामने जो चरित्र हो रहे थे, उनका रहस्य वह खूब समझती थीं और उनका सारा क्रोध निरपराधिनी निर्मला ही पर उतरता था। इस समय भी वह