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तो मंसाराम के अच्छे होने में बाधक नहीं हो रही है? डॉक्टर किसी के सगे नहीं होते, उन्हें तो अपने पैसों से काम है, मुरदा दोजख में जाए या बहिश्त में। उसके मन में प्रबल इच्छा होती थी कि जाकर अस्पताल के डॉक्टरों को एक हजार की थैली देकर कहे इन्हें बचा लीजिए, यह थैली आपकी भेंट है, पर उसके पास न तो इतने रुपए ही थे, न इतना साहस ही था। अब भी यदि वहाँ पहुँच सकती तो मंसाराम अच्छा हो जाता। उसकी जैसी सेवा-शुश्रूषा होनी चाहिए, वैसी नहीं हो रही है। नहीं तो क्या तीन दिन तक ज्वर ही न उतरता? यह दैहिक ज्वर नहीं, मानसिक ज्वर है और चित्त के शांत होने ही से इसका प्रकोप उतर सकता है। अगर वह वहाँ रात भर बैठी रह सकती और मुंशीजी जरा भी मन मैला न करते तो कदाचित् मंसाराम को विश्वास हो जाता कि पिताजी का दिल साफ है और फिर अच्छे होने में देर न लगती, लेकिन ऐसा होगा? मुंशीजी उसे वहाँ देखकर प्रसन्नचित्त रह सकेंगे? क्या अब भी उनका दिल साफ नहीं हुआ? यहाँ से जाते समय तो ऐसा ज्ञात हुआ था कि वह अपने प्रमाद पर पछता रहे हैं। ऐसा तो न होगा कि उसके वहाँ जाते ही मुंशीजी का संदेह फिर भड़क उठे और वह बेटे की जान लेकर ही छोड़ें?

इस दुविधा में पड़े-पड़े तीन दिन गुजर गए और न घर में चूल्हा जला, न किसी ने कुछ खाया। लड़कों के लिए बाजार से पूरियाँ ली जाती थीं, रुक्मिणी और निर्मला भूखी ही सो जाती थीं। उन्हें भोजन की इच्छा ही न होती।

चौथे दिन जियाराम स्कूल से लौटा तो अस्पताल होता हुआ घर आया। निर्मला ने पूछा-क्यों भैया, अस्पताल भी गए थे? आज क्या हाल है? तुम्हारे भैया उठे या नहीं?

जियाराम रुआँसा होकर बोला—अम्माजी, आज तो वह कुछ बोलते-चालते ही न थे। चुपचाप चारपाई पर पड़े जोरजोर से हाथ-पाँव पटक रहे थे।

निर्मला के चेहरे का रंग उड़ गया। घबराकर पूछा तुम्हारे बाबूजी वहाँ न थे?

जियाराम-थे क्यों नहीं? आज वह बहुत रोते थे।

निर्मला का कलेजा धक्-धक् करने लगा। पूछा-डॉक्टर लोग वहाँ न थे?

जियाराम-डॉक्टर भी खड़े थे और आपस में कुछ सलाह कर रहे थे। सबसे बड़ा सिविल सर्जन अंग्रेजी में कह रहा था कि मरीज की देह में कुछ ताजा खून डालना चाहिए। इसपर बाबूजी ने कहा-मेरी देह से जितना खून चाहें ले लीजिए। सिविल सर्जन ने हँसकर कहा-आपके ब्लड से काम नहीं चलेगा, किसी जवान आदमी का ब्लड चाहिए। आखिर उसने पिचकारी से कोई दवा भैया के बाजू में डाल दी। चार अंगुल से कम के सुई न रही होगी, पर भैया मिनके तक नहीं। मैंने तो मारे डरके आँखें बंद कर ली।

बड़े-बड़े महान् संकल्प आवेश में ही जन्म लेते हैं। कहाँ तो निर्मला भय से सूखी जाती थी, कहाँ उसके मुँह पर दृढ़ संकल्प की आभा झलक पड़ी। उसने अपनी देह का ताजा खून देने का निश्चय किया। अगर उसके रक्त से मंसाराम के प्राण बच जाएँ तो वह बड़ी खुशी से उसकी अंतिम बूंद तक दे डालेगी। अब जिसका जो जी चाहे समझे, वह कुछ परवाह न करेगी। उसने जियाराम से कहा-तुम लपककर एक एक्का बुला लो, मैं अस्पताल जाऊँगी।

जियाराम-वहाँ तो इस वक्त बहुत से आदमी होंगे। जरा रात हो जाने दीजिए।

निर्मला-नहीं, तुम अभी एक्का बुला लो।

जियाराम-कहीं बाबूजी बिगड़ें न?

निर्मला—बिगड़ने दो। तुम अभी जाकर सवारी लाओ।

जियाराम-मैं कह दूँगा, अम्माजी ही ने मुझसे सवारी मँगाई थी।

निर्मला-कह देना।