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जियाराम तो उधर ताँगा लाने गया। इतनी देर में निर्मला ने सिर में कंघी की, जूड़ा बाँधा, कपड़े बदले, आभूषण पहने, पान खाया और द्वार पर आकर ताँगे की राह देखने लगी।

रुक्मिणी अपने कमरे में बैठी हुई थीं। उसे इस तैयारी से आते देखकर बोलीं-कहाँ जाती हो, बह?

निर्मला-जरा अस्पताल तक जाती हूँ।

रुक्मिणी-वहाँ जाकर क्या करोगी?

निर्मला-कुछ नहीं, करूँगी क्या? करनेवाले तो भगवान हैं। देखने को जी चाहता है।

रुक्मिणी-मैं कहती हूँ, मत जाओ।

निर्मला ने विनीत भाव से कहा-अभी चली आऊँगी, दीदीजी। जियाराम कह रहे हैं कि इस वक्त उनकी हालत अच्छी नहीं है। जी नहीं मानता, आप भी चलिए न?

रुक्मिणी—मैं देख आई हूँ। इतना ही समझ लो कि अब बाहरी खुन पहुँचाने पर ही जीवन की आशा है। कौन अपना ताजा खून देगा और क्यों देगा? उसमें भी तो प्राणों का भय है।

निर्मला—इसीलिए तो मैं जाती हूँ। मेरे खून से क्या काम न चलेगा?

रुक्मिणी-चलेगा क्यों नहीं, जवान ही का तो खून चाहिए, लेकिन तुम्हारे खून से मंसाराम की जान बचे, इससे यह कहीं अच्छा है कि उसे पानी में बहा दिया जाए।

ताँगा आ गया। निर्मला और जियाराम दोनों जा बैठे। ताँगा चला।

रुक्मिणी द्वार पर खड़ी देर तक रोती रही। आज पहली बार उसे निर्मला पर दया आई। उसका बस होता तो वह निर्मला को बाँध रखती। करुणा और सहानुभूति का आवेश उसे कहाँ लिए जाता है, वह अप्रकट रूप से देख रही थी। आह! यह दुर्भाग्य की प्रेरणा है। यह सर्वनाश का मार्ग है।

निर्मला अस्पताल पहुंची तो दीपक जल चुके थे। डॉक्टर लोग अपनी राय देकर विदा हो चुके थे। मंसाराम का ज्वर कुछ कम हो गया था। वह टकटकी लगाए हुए द्वार की ओर देख रहा था। उसकी दृष्टि उन्मुक्त आकाश की ओर लगी हुई थी, मानो किसी देवता की प्रतीक्षा कर रहा हो! वह कहाँ है, जिस दशा में है, इसका उसे कुछ ज्ञान न था।

सहसा निर्मला को देखते ही वह चौंककर उठ बैठा। उसकी समाधि टूट गई। उसकी विलुप्त चेतना प्रदीप्त हो गई। उसे अपने स्थिति का, अपनी दशा का ज्ञान हो गया, मानो कोई भूली हुई बात याद हो गई हो। उसने आँखें फाड़कर निर्मला को देखा और मुँह फेर लिया।

एकाएक मुंशीजी तीव्र स्वर से बोले-तुम, यहाँ क्या करने आई?

निर्मला अवाक रह गईं। वह बतलाए कि क्या करने आई? इतने सीधे से प्रश्न का भी वह क्या कोई जवाब दे सकी? वह क्या करने आई थी? इतना जटिल प्रश्न किसके सामने आया होगा? घर का आदमी बीमार है, उसे देखने आई है, यह बात क्या बिना पूछे मालूम न हो सकती थी? फिर प्रश्न क्यों?

वह हतबुद्धी-सी खड़ी रही, मानो संज्ञाहीन हो गई हो। उसने दोनों लड़कों से मुंशीजी के शोक और संताप की बातें सुनकर यह अनुमान किया था कि अब उसका दिल साफ हो गया है। अब उसे ज्ञात हुआ कि वह भ्रम था। हाँ, वह महाभ्रम था। मगर वह जानती थी आँसुओं की दृष्टि ने भी संदेह की अग्नि शांत नहीं की तो वह कदापि न आती। वह कुढ़-कुढ़ाकर मर जाती, घर से पाँव न निकालती।

मुंशीजी ने फिर वही प्रश्न किया-तुम यहाँ क्यों आई?

निर्मला ने निशंक भाव से उत्तर दिया-आप यहाँ क्या करने आए हैं?