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सुधा—तुम आज उनसे खूब जोर देकर कहना कि कहीं जलवायु बदलनी चाहिए। दो-चार महीने बाहर रहने से बहुत सी बातें भूल जाएँगी। मैं तो समझती हूँ, शायद मकान बदलने से भी उनका शोक कुछ कम हो जाएगा। तुम कहीं बाहर जा भी न सकोगी। यह कौन सा महीना है?

निर्मला-आठवाँ महीना बीत रहा है। यह चिंता तो मुझे और भी मारे डालती है। मैंने तो इसके लिए ईश्वर से कभी प्रार्थना न की थी। यह बला मेरे सिर न जाने क्यों मढ़ दी? मैं बड़ी अभागिनी हूँ बहन, विवाह के एक महीने पहले पिताजी का देहांत हो गया। उनके मरते ही मेरे सिर शनीचर सवार हुए। जहाँ पहले विवाह की बातचीत पक्की हुई थी, उन लोगों ने आँखें फेर लीं। बेचारी अम्मा को हारकर मेरा विवाह यहाँ करना पड़ा। अब छोटी बहन का विवाह होनेवाला है। देखें, उसकी नाव किस घाट जाती है!

सुधा–जहाँ पहले विवाह की बातचीत हुई थी, उन लोगों ने इनकार क्यों कर दिया?

निर्मला-यह तो वे ही जानें। पिताजी न रहे तो सोने की गठरी कौन देता?

सुधा—यह तो नीचता है। कहाँ के रहनेवाले थे?

निर्मला-लखनऊ के। नाम तो याद नहीं, आबकारी के कोई बड़े अफसर थे। सुधा ने गंभीर भाव से पूछा और उनका लड़का क्या करता था?

निर्मला-कुछ नहीं, कहीं पढ़ता था, पर बड़ा होनहार था।

सुधा ने सिर नीचा करके कहा-उसने अपने पिता से कुछ न कहा था? वह तो जवान था, अपने बाप को दबा न सकता था?

निर्मला—अब यह मैं क्या जानूँ बहन? सोने की गठरी किसे प्यारी नहीं होती? जो पंडित मेरे यहाँ से संदेश लेकर गया था, उसने तो कहा था कि लड़का ही इनकार कर रहा है। लड़के की माँ अलबत्ता देवी थी। उसने पुत्र और पति दोनों ही को समझाया, पर उसकी कुछ न चली।

सुधा—मैं तो उस लड़के को पाती तो खूब आड़े हाथों लेती।

निर्मला—मेरे भाग्य में जो लिखा था, वह हो चुका। बेचारी कृष्णा पर न जाने क्या बीतेगी? संध्या समय निर्मला के जाने के बाद जब डॉक्टर साहब बाहर से आए तो सुधा ने कहा—क्यों जी, तुम उस आदमी को क्या कहोगे, जो एक जगह विवाह ठीक कर लेने के बाद फिर लोभवश किसी दूसरी जगह संबंध कर ले?

डॉक्टर सिन्हा ने स्त्री की ओर कौतूहल से देखकर कहा-ऐसा नहीं करना चाहिए और क्या?

सुधा—यह क्यों नहीं कहते कि यह घोर नीचता है, पहले सिरे का कमीनापन है!

सिन्हा–हाँ, यह कहने में भी मुझे इनकार नहीं।

सुधा-किसका अपराध बड़ा है? वर का या वर के पिता का?

सिन्हा की समझ में अभी तक नहीं आया कि सुधा के इन प्रश्नों का आशय क्या है? विस्मय से बोले जैसी स्थिति हो, अगर वह पिता के अधीन हो तो पिता का ही अपराध समझो।

सुधा–अधीन होने पर भी क्या जवान आदमी का अपना कोई कर्तव्य नहीं है? अगर उसे अपने लिए नए कोट की जरूरत हो तो वह पिता के विरोध करने पर भी उसे रो-धोकर बनवा लेता है। क्या ऐसे महत्त्व के विषय में वह अपनी आवाज पिता के कानों तक नहीं पहुंचा सकता? यह कहो कि वह और उसका पिता दोनों अपराधी हैं, परंतु वर अधिक। बूढ़ा आदमी सोचता है—मुझे तो सारा खर्च सँभालना पड़ेगा। कन्या पक्ष से जितना ऐंठ सकूँ, उतना ही अच्छा, मगर वर का धर्म है कि यदि वह स्वार्थ के हाथों बिल्कुल बिक नहीं गया है तो अपने आत्मबल का परिचय दे। अगर वह ऐसा नहीं करता तो मैं कहूँगी कि वह लोभी है और कायर भी। दुर्भाग्यवश ऐसा ही एक प्राणी मेरा पति