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को समझने की जरा भी चेष्टा न की, नहीं तो शायद वह उन्हें इतना कठोर न समझती। उसके सिर पर उत्तरदायित्व का इतना बड़ा भार कहाँ था, जो उसके पति पर आ पड़ा था? वह सोचने की चेष्टा करती तो क्या इतना भी उसकी समझ में न आता?

मुंशीजी को एक ही क्षण में अपनी भूल मालूम हो गई। माता का हृदय प्रेम में इतना अनुरक्त रहता है कि भविष्य की चिंता और बाधाएँ उसे जरा भी भयभीत नहीं करतीं। उसे अपने अंत:करण में एक अलौकिक शक्ति का अनुभव होता है, जो बाधाओं को उनके सामने परास्त कर देती है। मुंशीजी दौड़े हुए घर में आए और शिशु को गोद में लेकर बोले-मुझे याद आती है, मंसा भी ऐसा ही था, बिल्कुल ऐसा ही!

निर्मला-दीदीजी भी तो यही कहती हैं।