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मुंशीजी-बिल्कुल वही बड़ी-बड़ी आँखें और लाल-लाल ओठ हैं। ईश्वर ने मुझे मेरा मंसाराम इस रूप में दे दिया। वही माथा है, वही मुँह, वही हाथ-पाँव! ईश्वर तुम्हारी लीला अपार है।

सहसा रुक्मिणी भी आ गईं। मुंशीजी को देखते ही बोली-देखो बाबू, मंसाराम है कि नहीं? वही आया है। कोई लाख कहे, मैं न मानूंगी। साफ मंसाराम है। साल भर के लगभग हो भी तो गया। मुंशीजी-बहन, एक-एक अंग तो मिलता है। बस, भगवान् ने मुझे मेरा मंसाराम दे दिया। (शिशु से) क्यों री, तृ मंसाराम ही है? छोड़कर जाने का नाम न लेना, नहीं फिर खींच लाऊँगा। कैसे निष्ठुर होकर भागे थे। आखिर पकड़ लाया कि नहीं? बस, कह दिया, अब मुझे छोड़कर जाने का नाम न लेना। देखो बहन, कैसी टुकुर-टुकुर ताक रही

उसी क्षण मुंशीजी ने फिर से अभिलाषाओं का भवन बनाना शुरू कर दिया। मोह ने उन्हें फिर संसार की ओर खींचा। मानव जीवन! तू इतना क्षणभंगुर है, पर तेरी कल्पनाएँ कितनी दीर्घालु! वही तोताराम जो संसार से विरक्त हो रहे थे, जो रात-दिन मुत्यु का आह्वान किया करते थे, तिनके का सहारा पाकर तट पर पहुँचने के लिए पूरी शक्ति से हाथ-पाँव मार रहे हैं।

मगर तिनके का सहारा पाकर कोई तट पर पहुंचा है?

15.

निर्मला को यद्यपि अपने घर के झंझटों से अवकाश न था, पर कृष्णा के विवाह का संदेश पाकर वह किसी तरह न रुक सकी। उसकी माता ने बहुत आग्रह करके बुलाया था। सबसे बड़ा आकर्षण यह था कि कृष्णा का विवाह उसी घर में हो रहा था, जहाँ निर्मला का विवाह पहले तय हुआ था। आश्चर्य यही था कि इस बार ये लोग बिना कुछ दहेज लिए कैसे विवाह करने पर तैयार हो गए! निर्मला को कृष्णा के विषय में बड़ी चिंता हो रही थी। समझती थी—मेरी ही तरह वह भी किसी के गले मढ़ दी जाएगी। बहुत चाहती थी कि माता की कुछ सहायता करूँ, जिससे कृष्णा के लिए कोई योग्य वर मिले, लेकिन इधर वकील साहब के घर बैठ जाने और महाजन के नालिश कर देने से उसका हाथ भी तंग था। ऐसी दशा में यह खबर पाकर उसे बड़ी शांति मिली। चलने की तैयारी कर ली। वकील साहब स्टेशन तक पहुँचाने आए। नन्ही बच्ची से उन्हें बहुत प्रेम था। छोड़ते ही न थे, यहाँ तक कि निर्मला के साथ चलने को तैयार हो गए, लेकिन विवाह से एक महीने पहले उनका ससुराल जा बैठना निर्मला को उचित न मालूम हुआ। निर्मला ने अपनी माता से अब तक अपनी विपत्ति कथा न कही थी। जो बात हो गई, उसका रोना रोकर माता को कष्ट देने और रुलाने से क्या फायदा? इसलिए उसकी माता समझती थी, निर्मला बड़े आनंद से है। अब जो निर्मला की सूरत देखी तो मानो उसके हृदय पर धक्का-सा लग गया। लड़कियाँ ससुराल से घुलकर नहीं आतीं, फिर निर्मला जैसी लड़की, जिसको सुख की सभी सामग्रियाँ प्राप्त थीं। उसने कितनी लड़कियों को दूज के चंद्रमा की भाँति ससुराल जाते और पूर्ण चंद्र बनकर आते देखा था। मन में कल्पना कर रही थी, निर्मला का रंग निखर गया होगा, देह भरकर सुडौल हो गई होगी, अंग-प्रत्यंग की शोभा कुछ और ही हो गई होगी। अब जो देखा तो वह आधी भी न रही थी। न यौवन की चंचलता थी, न वह विहसित छवि, जो हृदय को मोह लेती है। वह कमनीयता, सुकुमारता, जो विलासमय जीवन से आ जाती है, यहाँ नाम को न थी। मुख पीला, चेष्टा गिरी हुई तो माता ने पूछा -क्यों री, तुझे वहाँ खाने को न मिलता था? इससे कहीं अच्छी तो तू यहीं थी। वहाँ तुझे क्या तकलीफ थी?

कृष्णा ने हँसकर कहा-वहाँ मालकिन थीं कि नहीं। मालकिन दुनिया भर की चिंताएँ रहती हैं, भोजन कब करें?