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निर्मला नहीं अम्माँ, वहाँ का पानी मुझे रास नहीं आया। तबीयत भारी रहती है।

माता-वकील साहब न्योते में आएंगे न? तब पूलूंगी कि आपने फूल-सी लड़की ले जाकर उसकी यह गत बना डाली। अच्छा, अब यह बता कि तूने यहाँ रुपए क्यों भेजे थे? मैंने तो तुमसे कभी न माँगे थे। लाख गई-गुजरी हूँ, लेकिन बेटी का धन खाने की नीयत नहीं।

निर्मला ने चकित होकर पूछा-किसने रुपए भेजे थे। अम्माँ, मैंने तो नहीं भेजे।

माता-झूठ न बोल! तूने पाँच सौ रुपए के नोट नहीं भेजे थे?

कृष्णा-भेजे नहीं थे तो क्या आसमान से आ गए? तुम्हारा नाम साफ लिखा था। मोहर भी वहीं की थी।

निर्मला-तुम्हारे चरण छूकर कहती हूँ, मैंने रुपए नहीं भेजे। यह कब की बात है?

माता–अरे, दो-ढाई महीने हुए होंगे। अगर तूने नहीं भेजे तो आए कहाँ से?

निर्मला—यह मैं क्या जानूँ? मगर मैंने रुपए नहीं भेजे। हमारे यहाँ तो जब से जवान बेटा मरा है, कचहरी ही नहीं जाते। मेरा हाथ तो आप ही तंग था, रुपए कहाँ से आते?

माता—यह तो बड़े आश्चर्य की बात है। वहाँ और कोई तेरा सगा-संबंधी तो नहीं है? वकील साहब ने तुमसे छिपाकर तो नहीं भेजे?

निर्मला-नहीं अम्माँ, मुझे तो विश्वास नहीं।

माता-इसका पता लगाना चाहिए। मैंने सारे रुपए कृष्णा के गहने-कपड़े में खर्च कर डाले। यही बड़ी मुश्किल हुई। दोनों लड़कों में किसी विषय पर विवाद उठ खड़ा हुआ और कृष्णा उधर फैसला करने चली गई तो निर्मला ने माता से कहा-इस विवाह की बात सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। यह कैसे हुआ अम्मा?

माता–यहाँ जो सुनता है, दाँतों उँगली दबाता है। जिन लोगों ने पक्की की कराई बात फेर दी और केवल थोड़े से रुपए के लोभ से, वे अब बिना कुछ लिए कैसे विवाह करने पर तैयार हो गए, समझ में नहीं आता। उन्होंने खुद ही पत्र भेजा। मैंने साफ लिख दिया कि मेरे पास देने-लेने को कुछ नहीं है, कुश-कन्या ही से आपकी सेवा कर सकती हूँ।

निर्मला-इसका कुछ जवाब नहीं दिया?

माता-शास्त्रीजी पत्र लेकर गए थे। वह तो यही कहते थे कि अब मुंशीजी कुछ लेने के इच्छुक नहीं हैं। अपनी पहली वादा-खिलाफ पर कुछ लज्जित भी हैं। मुंशीजी से तो इतनी उदारता की आशा न थी, मगर सुनती हूँ उनके बड़े पुत्र बहुत सज्जन आदमी हैं। उन्होंने कह सुनकर बाप को राजी किया है।

निर्मला—पहले तो वह महाशय भी थैली चाहते थे न?

माता—हाँ, मगर अब तो शास्त्रीजी कहते थे कि दहेज के नाम से चिढ़ते हैं। सुना है यहाँ विवाह न करने पर पछताते भी थे। रुपए के लिए बात छोड़ी थी और रुपए खूब पाए, स्त्री पसंद नहीं।

निर्मला के मन में उस पुरुष को देखने की प्रबल उत्कंठा हुई, जो उसकी अवहेलना करके अब उसकी बहन का उद्धार करना चाहता है। प्रायश्चित्त सही, लेकिन कितने ऐसे प्राणी हैं, जो इस तरह प्रायश्चित्त करने को तैयार हैं? उनसे बातें करने के लिए, नम्र शब्दों से उनका तिरस्कार करने के लिए, अपनी अनुपम छवि दिखाकर उन्हें और भी जलाने के लिए निर्मला का हृदय अधीर हो उठा। रात को दोनों बहनें एक ही कमरे में सोईं। मुहल्ले में किन-किन लड़कियों का विवाह हो गया, कौन-कौन लड़कोरी हुई, किस-किस का विवाह धूम-धाम से हुआ। किस-किस के पति इच्छानुकूल मिले, कौन कितने और कैसे गहने चढ़ावे में लाया, इन्हीं विषयों में दोनों में बड़ी देर तक बातें होती रहीं। कृष्णा बार-बार चाहती थी कि बहन के घर का कुछ हाल पूछू, मगर निर्मला उसे पूछने का अवसर न देती