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निर्मला—(तसवीर की तरफ देखती हुई) कपड़े सब खद्दर के मालूम होते हैं।

कृष्णा–हाँ, खद्दर के बड़े प्रेमी हैं। सुनती हूँ कि पीठ पर खद्दर लाद कर देहातों में बेचने जाया करते हैं। व्याख्यान देने में भी चतुर हैं।

निर्मला-तब तो तुझे भी खद्दर पहनना पड़ेगा। तुझे तो मोटे कपड़ो से चिढ़ है।

कृष्णा-जब उन्हें मोटे कपड़े अच्छे लगते हैं तो मुझे क्यों चिढ़ होगी, मैंने तो चरखा चलाना सीख लिया है।

निर्मला-सच! सूत निकाल लेती है?

कृष्णा–हाँ बहन, थोड़ा-थोड़ा निकाल लेती हूँ। जब वह खद्दर के इतने प्रेमी हैं, जो चरखा भी जरूर चलाते होंगे। मैं न चला सकूँगी तो मुझे कितना लज्जित होना पड़ेगा।

इस तरह बात करते-करते दोनों बहनें सोईं। कोई दो बजे रात को बच्ची रोई तो निर्मला की नींद खुली। देखा तो कृष्णा की चारपाई खाली पड़ी थी। निर्मला को आश्चर्य हुआ कि इतनी रात गए कृष्णा कहाँ चली गई। शायद पानीवानी पीने गई हो, मगर पानी तो सिरहाने रखा हुआ है, फिर कहाँ गई है? उसे दो-तीन बार उसका नाम लेकर आवाज दी, पर कृष्णा का पता न था। तब तो निर्मला घबरा उठी। उसके मन में भाँति-भाँति की शंकाएँ होने लगीं। सहसा उसे खयाल आया कि शायद अपने कमरे में न चली गई हो। बच्ची सो गई तो वह उठकर कृष्णा के कमरे के द्वार पर आई। उसका अनुमान ठीक था, कृष्णा अपने कमरे में थी। सारा घर सो रहा था और वह बैठी चरखा चला रही थी। इतनी तन्मयता से शायद उसने थिएटर भी न देखा होगा। निर्मला दंग रह गई। अंदर जाकर बोली-यह क्या कर रही है रे! यह चरखा चलाने का समय है?

कृष्णा चौंककर उठ बैठी और संकोच से सिर झुकाकर बोली-तुम्हारी नींद कैसे खुल गई? पानी-वानी तो मैंने रख दिया था।

निर्मला—मैं कहती हूँ, दिन को तुझे समय नहीं मिलता, जो पिछली रात को चरखा लेकर बैठी है?

कृष्णा—दिन को फुरसत ही नहीं मिलती?

निर्मला-(सूत देखकर) सूत तो बहुत महीन है।

कृष्णा-कहाँ बहन, यह सूत तो मोटा है। मैं बारीक सूत कातकर उनके लिए साफा बनाना चाहती हूँ। यही मेरा उपहार होगा।

निर्मला—बात तो तूने खूब सोची है। इससे अधिक मूल्यवान वस्तु उनकी दृष्टि में और क्या होगी? अच्छा, उठ इस वक्त, कल कातना! कहीं बीमार पड़ जाएगी तो सब धरा रह जाएगा।

कृष्णा-नहीं मेरी बहन, तुम चलकर सोओ, मैं अभी आती हूँ।

निर्मला ने अधिक आग्रह न किया, लेटने चली गई, मगर किसी तरह नींद न आई। कृष्णा की उत्सुकता और यह उमंग देखकर उसका हृदय किसी अलक्षित आकांक्षा से आंदोलित हो उठा। ओह! इस समय इसका हृदय कितना प्रफुल्लित हो रहा है। अनुराग ने इसे कितना उन्मत्त कर रखा है। तब उसे अपने विवाह की याद आई। जिस दिन तिलक गया था, उसी दिन से उसकी सारी चंचलता, सारी सजीवता विदा हो गई थी। अपनी कोठरी में बैठी वह अपनी किस्मत को रोती थी और ईश्वर से विनय करती थी कि प्राण निकल जाएँ। अपराधी जैसे दंड की प्रतीक्षा करता है, उसी भाँति वह विवाह की प्रतीक्षा करती थी, उस विवाह की, जिसमें उसके जीवन की सारी अभिलाषाएँ विलीन हो जाएँगी, जब मंडप के नीचे बने हुए हवन-कुंड में उसकी आशाएँ जलकर भस्म हो जाएँगी।

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