पृष्ठ:निर्मला.pdf/७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

मुँह से नहीं निकला। मैं तो दो-चार ही दिन में उबल पड़ती।

सुधा-तुम्हें मालूम हो जाता तो तुम मेरे यहाँ आती ही क्यों?

निर्मला-गजब-रे-गजब, मैं डॉक्टर साहब से कई बार बातें कर चुकी हूँ। तुम्हारे ऊपर यह सारा पाप पड़ेगा। देखा कृष्णा, तूने अपनी जेठानी की शरारत! यह ऐसी मायाविनी है, इनसे डरती रहना।

कृष्णा-मैं तो ऐसी देवी के चरण धो-धोकर माथे चढ़ाऊँगी। धन्य-भाग कि इनके दर्शन हुए।

निर्मला—अब समझ गई। रुपए भी तुम्हीं ने भिजवाए होंगे। अब सिर हिलाया तो सच कहती हूँ, मार बैठूँगी।

सुधा-अपने घर बुलाकर के मेहमान का अपमान नहीं किया जाता।

निर्मला-देखो तो अभी कैसी-कैसी खबरें लेती हूँ। मैंने तुम्हारा मान रखने को जरा सा लिख दिया था और तुम सचमुच आ पहुँची। भला वहाँ वाले क्या कहते होंगे?

सुधा-सबसे कहकर आई हूँ।

निर्मला-अब तुम्हारे पास कभी न आऊँगी। इतना तो इशारा कर देतीं कि डॉक्टर साहब से परदा रखना।

सुधा-उनके देख लेने ही से कौन बुराई हो गई? न देखते तो अपनी किस्मत को रोते कैसे? जानते कैसे कि लोभ में पड़कर कैसी चीज खो दी? अब तो तुम्हें देखकर लालाजी हाथ मलकर रह जाते हैं। मुँह से तो कुछ नहीं कहते, पर मन में अपनी भूल पर पछताते हैं।

निर्मला—अब तुम्हारे घर कभी न आऊँगी।

सुधा–अब पिंड नहीं छूट सकता। मैंने कौन तुम्हारे घर की राह नहीं देखी है।

द्वार-पूजा समाप्त हो चुकी थी। मेहमान लोग बैठ जलपान कर रहे थे। मुंशीजी की बगल में ही डॉक्टर सिन्हा बैठे हुए थे। निर्मला ने कोठे पर चिक की आड़ से उन्हें देखा और कलेजा थामकर रह गई। एक आरोग्य, यौवन और प्रतिभा का देवता था, पर दूसरा...इस विषय में कुछ न कहना ही उचित है।

निर्मला ने डॉक्टर साहब को सैकड़ों ही बार देखा था, पर आज उसके हृदय में जो विचार उठे, वे कभी न उठे थे। बार-बार यह जी चाहता था कि बुलाकर खूब फटकारूँ, ऐसे-ऐसे ताने मारूँ कि वह भी याद करें, रुला-रुलाकर छोइँ, मगर रहम करके रह जाती थी। बारात जनवासे चली गई थी। भोजन की तैयारी हो रही थी। निर्मला भोजन के थाल चुनने में व्यस्त थी। सहसा महरी ने आकर कहा-बिट्टी, तुम्हें सुधा रानी बुला रही हैं। तुम्हारे कमरे में बैठी हैं।

निर्मला ने थाल छोड़ दिए और घबराई हुई सुधा के पास आई, मगर अंदर कदम रखते ही ठिठक गई, डॉक्टर सिन्हा खड़े थे।

सुधा ने मुसकराकर कहा—लो बहन, बुला दिया। अब जितना चाहो, फटकारो। मैं दरवाजा रोके खड़ी हूँ, भाग नहीं सकते।

डॉक्टर साहब ने गंभीर भाव से कहा-भागता कौन है? यहाँ तो सिर झुकाए खड़ा हूँ। निर्मला ने हाथ जोड़कर कहा—इसी तरह सदा कृपा-दृष्टि रखिएगा, भूल न जाइएगा। यह मेरी विनय है।

17.

कृष्णा के विवाह के बाद सुधा चली गई, लेकिन निर्मला मैके ही में रह गई। वकील साहब बार-बार लिखते थे, पर वह न जाती थी। वहाँ जाने को उसका जी न चाहता था। वहाँ कोई ऐसी चीज न थी, जो उसे खींच ले जाए।