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सुधा–आँखें बंद कर लो, आप ही नींद आ जाएगी। मैं तो चारपाई पर आते ही मर-सी जाती हूँ। वह जागते भी हैं तो खबर नहीं होती। न जाने मुझे क्यों इतनी नींद आती है। शायद कोई रोग है।

निर्मला—हाँ, बड़ा भारी रोग है। इसे राज-रोग कहते हैं। डॉक्टर साहब से कहो-दवा शुरू कर दें।

सुधा—तो आखिर जागकर क्या सोचूँ? कभी-कभी मैके की याद आ जाती है तो उस दिन जरा देर में आँख लगती है।

निर्मला डॉक्टर साहब की याद नहीं आती?

सुधा-कभी नहीं, उनकी याद क्यों आए? जानती हूँ कि टेनिस खेलकर आए होंगे, खाना खाया होगा और आराम से लेटे होंगे।

निर्मला—लो, सोहन भी जाग गया। जब तुम जाग गई तो भला यह क्यों सोने लगा?

सुधा–हाँ बहन, इसकी अजीब आदत है। मेरे साथ सोता और मेरे ही साथ जागता है। उस जन्म का कोई तपस्वी है। देखो, इसके माथे पर तिलक का कैसा निशान है। बाँहों पर भी ऐसे ही निशान हैं। जरूर कोई तपस्वी है।

निर्मला—तपस्वी लोग तो चंदन-तिलक नहीं लगाते। उस जन्म का कोई धूर्त पुजारी होगा। क्यों रे, तू कहाँ का पुजारी था बता?

सुधा—इसका ब्याह मैं बच्ची से करूँगी।

निर्मला—चलो बहन, गाली देती हो। बहन से भी भाई का ब्याह होता है?

सुधा-मैं तो करूँगी, चाहे कोई कुछ कहे। ऐसी सुंदर बहू और कहाँ पाऊँगी? जरा देखो तो बहन, इसकी देह कुछ गरम है या मुझे ही मालूम होती है।

निर्मला ने सोहन का माथा छूकर कहा-नहीं-नहीं, देह गरम है। यह ज्वर कब आ गया! दूध तो पी रहा है न?

सुधा–अभी सोया था, तब तो देह ठंडी थी। शायद सर्दी लग गई, उढ़ाकर सुलाए देती हूँ। सबेरे तक ठीक हो जाएगा।

सबेरा हुआ तो सोहन की दशा और भी खराब हो गई। उसकी नाक बहने लगी और बुखार और भी तेज हो गया। आँखें चढ़ गई और सिर झुक गया। न वह हाथ-पैर हिलाता था, न हँसता-बोलता था, बस, चुपचाप पड़ा था। ऐसा मालूम होता था कि उसे इस वक्त किसी का बोलना अच्छा नहीं लगता। कुछ-कुछ खाँसी भी आने लगी। अब तो सुधा घबराई। निर्मला की भी राय हुई कि डॉक्टर साहब को बुलाया जाए, लेकिन उसकी बूढ़ी माता ने कहा-डॉक्टर-हकीम साहब का यहाँ कुछ काम नहीं। साफ तो देख रही हूँ कि बच्चे को नजर लग गई है। भला डॉक्टर आकर क्या करेंगे?

सुधा–अम्माजी, भला यहाँ नजर कौन लगा देगा? अभी तक तो बाहर कहीं गया भी नहीं।

माता-नजर कोई लगाता नहीं बेटी, किसी-किसी आदमी की दीठ बुरी होती है, आप-ही-आप लग जाती है। कभीकभी माँ-बाप तक की नजर लग जाती है। जब से आया है, एक बार भी नहीं रोया। चोंचले बच्चों को यही गति होती है। मैं इसे हुमकते देखकर डरी थी कि कुछ-न-कुछ अनिष्ट होनेवाला है। आँखें नहीं देखती हो, कितनी चढ़ गई हैं। यही नजर की सबसे बड़ी पहचान है।

बुढ़िया महरी और पड़ोस की पंडिताइन ने इस कथन का अनुमोदन कर दिया। बस महँगू ने आकर बच्चे का मुँह देखा और हँसकर बोला—मालकिन, यह दीठ है और कुछ नहीं। जरा पतली-पतली तीलियाँ मँगवा दीजिए। भगवान् ने चाहा तो संझा तक बच्चा हँसने लगेगा।

सरकंडे के पाँच टुकड़े लाए गए। महँगू ने उन्हें बराबर करके एक डोरे से बाँध दिया और कुछ बुदबुदाकर उसी