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है। सोहन को वह बहुत प्यार करते थे बहन। न जाने उनके चित्त की क्या दशा होगी। मैं उन्हें ढाढ़स क्या दूँगी, आप ही रोती रहूँगी। क्या रात ही को चले जाएँगे?

निर्मला—हाँ, अम्माजी तो कहती थी छुट्टी नहीं ली है।

दोनो सहेलियाँ मर्दाने कमरे की ओर चलीं, लेकिन कमरे के द्वार पर पहुँच सुधा ने निर्मला को विदा कर दिया। अकेली कमरे में दाखिल हुई। डॉक्टर साहब घबरा रहे थे कि न जाने सुधा की क्या दशा हो रही है। भाँति-भाँति की शंकाएँ मन में आ रही थीं। जाने को तैयार बैठे थे, लेकिन जी न चाहता था। जीवन शून्य-सा मालूम होता था। मन-ही-मन कुढ़ रहे थे, अगर ईश्वर को इतनी जल्दी यह पदार्थ देकर छीन लेना था तो दिया ही क्यों था? उन्होंने तो कभी संतान के लिए ईश्वर से प्रार्थना न की थी। वह आजन्म नि:संतान रह सकते थे, पर संतान पाकर उससे वंचित हो जाना उन्हें असह्य जान पड़ता था। क्या सचमुच मनुष्य ईश्वर का खिलौना है? यही मानव जीवन का महत्त्व है? यह केवल बालकों का घरौंदा है, जिसके बनने का न कोई हेतु है न बिगड़ने का? फिर बालकों को भी तो अपने घरौंदे से अपनी कागज की नावों से, अपनी लकड़ी के घोड़ों से ममता होती है। अच्छे खिलौने को वह जान के पीछे छिपाकर रखते हैं। अगर ईश्वर बालक ही है तो वह विचित्र बालक है।

किंतु बुद्धि तो ईश्वर का यह रूप स्वीकार नहीं करती। अनंत सृष्टि का कर्ता उदंड बालक नहीं हो सकता है। हम उसे उन सारे गुणों से विभूषित करते हैं, जो हमारी बुद्धि की पहुंच से बाहर हैं। खिलाड़ीपन तो उन महान् गुणों में नहीं! क्या हँसते-खेलते बालकों का प्राण हर लेना खेल है? क्या!

सहसा सुधा दबे-पाँव कमरे में दाखिल हुई। डॉक्टर साहब उठ खड़े हुए और उसके समीप आकर बोले-तुम कहाँ थी, सुधा? मैं तुम्हारी राह देख रहा था।

सुधा की आँखों में कमरा तैरता हुआ जान पड़ा। पति की गरदन में हाथ डालकर उसने उनकी छाती पर सिर रख दिया और रोने लगी, लेकिन इस अश्रु-प्रवाह में उसे असीम धैर्य और सांत्वना का अनुभव हो रहा था। पति के वक्षस्थल से लिपटी हुई वह अपने हृदय में एक विचित्र स्फूर्ति और बल का संचार होते हुए पाती थी, मानो पवन से थरथराता हुआ दीपक आँचल की आड़ में आ गया हो।

डॉक्टर साहब ने रमणी के अश्रु-सिंचित कपोलों को दोनों हाथों में लेकर कहा-सुधा, तुम इतना छोटा दिल क्यों करती हो? सोहन अपने जीवन में जो कुछ करने आया था, वह कर चुका था, फिर वह क्यों बैठा रहता? जैसे कोई वृक्ष जल और प्रकाश से बढ़ता है, लेकिन पवन के प्रबल झोंकों ही से सुदृढ़ होता है, उसी भाँति प्रणय भी दुःख के आघातों ही से विकास पाता है। खुशी के साथ हँसनेवाले बहुतेरे मिल जाते हैं, रंज में जो साथ रोए, वह हमारा सच्चा मित्र है। जिन प्रेमियों को साथ रोना नहीं नसीब हुआ, वे मुहब्बत के मजे क्या जानें? सोहन की मृत्यु ने आज हमारे द्वैत को बिल्कुल मिटा दिया। आज ही हमने एक-दूसरे का सच्चा स्वरूप देखा।

सुधा ने सिसकते हुए कहा—मैं नजर के धोखे में थी। हाय! तुम उसका मुँह भी न देखने पाए। न जाने इन दिनों उसे इतनी समझ कहाँ से आ गई थी। जब मुझे रोते देखता तो अपने कष्ट भूलकर मुसकरा देता। तीसरे ही दिन मेरे लाड़ले की आँख बंद हो गई। कुछ दवा-दर्पन भी न करने पाईं।

यह कहते-कहते सुधा के आँसू फिर उमड़ आए। डॉक्टर सिन्हा ने उसे सीने से लगाकर करुणा से काँपती हुई आवाज में कहा—प्रिये, आज तक कोई ऐसा बालक या वृद्ध न मरा होगा, जिससे घरवालों की दवा-दर्पन की लालसा पूरी हो गई।

सुधा-निर्मला ने मेरी बड़ी मदद की। मैं तो एकाध झपकी ले भी लेती थी, पर उसकी आँखें नहीं झपकीं। रात-रात