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मुंशीजी–दूध पीने का शौक है तो जाकर दुहा क्यों नहीं लाते? पानी के पैसे तो मुझसे न दिए जाएँगे।

जियाराम-मैं दूध दुहाने जाऊँ, कोई स्कूल का लड़का देख ले तब?

मुंशीजी-तब कुछ नहीं। कह देना अपने लिए दूध लिए जाता हूँ। दूध लाना कोई चोरी नहीं है।

जियाराम-चोरी नहीं है! आप ही को कोई दूध लाते देख ले तो आपको शर्म न आएगी।

मुंशीजी—बिल्कुल नहीं। मैंने तो इन्हीं हाथों से पानी खींचा है, अनाज की गठरियाँ लाया हूँ। मेरे बाप लखपति नहीं थे।

जियाराम-मेरे बाप तो गरीब नहीं, मैं क्यों दूध दुहाने जाऊँ? आखिर आपने कहारों को क्यों जवाब दे दिया?

मुंशीजी—क्या तुम्हें इतना भी नहीं सूझता कि मेरी आमदनी अब पहली सी नहीं रही, इतने नादान तो नहीं हो?

जियाराम-आखिर आपकी आमदनी क्यों कम हो गई?

मुंशीजी-जब तुम्हें अकल ही नहीं है तो क्या समझाऊँ। यहाँ जिंदगी से तंग आ गया हूँ। मुकदमे कौन ले और ले भी तो तैयार कौन करे? वह दिल ही नहीं रहा। अब तो जिंदगी के दिन पूरे कर रहा हूँ। सारे अरमान लल्लू के साथ चले गए।

जियाराम-अपने ही हाथों न।

मुंशीजी ने चीखकर कहा—अरे अहमक! यह ईश्वर की मर्जी थी। अपने हाथों कोई अपना गला काटता है।

जियाराम-ईश्वर तो आपका विवाह करने न आया था।

मुंशीजी अब जब्त न कर सके। लाल-लाल आँखें निकालकर बोले- क्या तुम आज लड़ने के लिए कमर बाँधकर आए हो? आखिर किस बिरते पर? मेरी रोटियाँ तो नहीं चलाते? जब इस काबिल हो जाना, मुझे उपदेश देना। तब मैं सुन [गा। अभी तुमको मुझे उपदेश देने का अधिकार नहीं है। कुछ दिनों अदब और तमीज सीखो। तुम मेरे सलाहकार नहीं हो कि मैं जो काम करूँ, उसमें तुमसे सलाह लूँ। मेरी पैदा की हुई दौलत है, उसे जैसे चाहूँ, खर्च कर सकता हूँ। तुमको जबान खोलने का भी हक नहीं है। अगर फिर तुमने मुझसे बेअदबी की तो नतीजा बुरा होगा। जब मंसाराम ऐसा रत्न खोकर मेरे प्राण न निकले तो तुम्हारे बगैर मैं मर न जाऊँगा, समझ गए?

यह कड़ी फटकार पाकर भी जियाराम वहाँ से न टला। नि:शंक भाव से बोला-तो आप क्या चाहते हैं कि हमें चाहे कितनी ही तकलीफ हो, मुँह न खोलें? मुझसे तो यह न होगा। भाई साहब को अदब और तमीज का जो इनाम मिला, उसकी मुझे भूख नहीं। मुझमें जहर खाकर प्राण देने की हिम्मत नहीं। ऐसे अदब को दूर से दंडवत करता हूँ।

मुंशीजी-तुम्हें ऐसी बातें करते हुए शर्म नहीं आती?

जियाराम-लड़के अपने बुजुर्गों ही की नकल करते हैं।

मुंशीजी का क्रोध शांत हो गया। जियाराम पर उसका कुछ भी असर न होगा, इसका उन्हें यकीन हो गया। उठकर टहलने चले गए। आज उन्हें सूचना मिल गई कि इस घर का शीघ्र ही सर्वनाश होनेवाला है।

उस दिन से पिता और पुत्र में किसी-न-किसी बात पर रोज ही एक झपट हो जाती है। मुंशीजी ज्यों-ज्यों तरह देते थे, जियाराम और भी शेर होता जाता था। एक दिन जियाराम ने रुक्मिणी से यहाँ तक कह डाला—बाप हैं, यह समझकर छोड़ देता हूँ, नहीं तो मेरे ऐसे-ऐसे साथी हैं कि चाहूँ तो भरे बाजार में पिटवा दूं। रुक्मिणी ने मुंशीजी से कह दिया। मुंशीजी ने प्रकट रूप से तो बेपरवाही ही दिखाई, पर उनके मन में शंका समा गई। शाम को सैर करना छोड़ दिया। यह नई चिंता सवार हो गई। इसी भय से निर्मला को भी न लाते थे कि शैतान उसके साथ भी यही बर्ताव करेगा। जियाराम एक बार दबी जबान में कह भी चुका था-देखें, अबकी कैसे इस घर में आती है? मुंशीजी भी खूब समझ गए थे कि मैं इसका कुछ भी नहीं कर सकता। कोई बाहर का आदमी होता तो उसे पुलिस और कानून