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उन्हें जगाऊँ, पर जाने की हिम्मत न पड़ी। शक्की आदमी है, न जाने क्या समझ बैठें और क्या करने पर तैयार हो जाएँ? आकर फिर पुस्तक पढ़ने लगी। सबेरे पूछने पर आप ही मालूम हो जाएगा। कौन जाने मुझे धोखा ही हुआ हो। नींद में कभी-कभी धोखा हो जाता है, लेकिन सबेरे पूछने का निश्चय कर भी उसे फिर नींद नहीं आई।

सबेरे वह जलपान लेकर स्वयं जियाराम के पास गई तो वह उसे देखकर चौंक पड़ा। रोज तो दूँगी आती थी, आज यह क्यों आ रही है? निर्मला की ओर ताकने की उसकी हिम्मत न पड़ी।

निर्मला ने उसकी ओर विश्वासपूर्ण नेत्रों से देखकर पूछा-रात को तुम मेरे कमरे में गए थे?

जियाराम ने विस्मय दिखाकर कहा-मैं? भला मैं रात को क्या करने जाता? क्या कोई गया था?

निर्मला ने इस भाव से कहा, मानो उसे उसकी बात का पूरा विश्वास हो गया। हाँ, मुझे ऐसा मालूम हुआ कि कोई मेरे कमरे से निकला। मैंने उसका मुँह तो न देखा, पर उसकी पीठ देखकर अनुमान किया कि शायद तुम किसी काम से आए हो। इसका पता कैसे चले कौन था? कोई था जरूर इसमें कोई संदेह नहीं।

जियाराम अपने को निरपराध सिद्ध करने की चेष्टा कर कहने लगा—मैं तो रात को थिएटर देखने चला गया था। वहाँ से लौटा तो एक मित्र के घर लेट रहा। थोड़ी देर हुई लौटा हूँ। मेरे साथ और भी कई मित्र थे। जिससे जी चाहे, पूछ लें। हाँ, भाई मैं बहुत डरता हूँ। ऐसा न हो, कोई चीज गायब हो गई तो मेरा नाम लगे। चोर को तो कोई पकड़ नहीं सकता, मेरे मत्थे जाएगी। बाबूजी को आप जानती हैं। मुझे मारने दौड़ेंगे।

निर्मला-तुम्हारा नाम क्यों लगेगा? अगर तुम्हीं होते तो भी तुम्हें कोई चोरी नहीं लगा सकता। चोरी दूसरे की चीज की जाती है, अपनी चीज की चोरी कोई नहीं करता।

अभी तक निर्मला की निगाह अपने संदूकचे पर न पड़ी थी। भोजन बनाने लगी। जब वकील साहब कचहरी चले गए तो वह सुधा से मिलने चली। इधर कई दिनों से मुलाकात न हुई थी, फिर रातवाली घटना पर विचार विमर्श भी करना था। भूँगी से कहा–कमरे में से गहनों का बक्सा उठा ला।

भूँगी ने लौटकर कहा-वहाँ तो कहीं संदूक नहीं हैं। कहाँ रखा था?

निर्मला ने चिढ़कर कहा—एक बार में तो तेरा काम ही कभी नहीं होता। वहाँ छोड़कर और जाएगा कहाँ। आलमारी में देखा था?

भूँगी-नहीं बहूजी, आलमारी में तो नहीं देखा, झूठ क्यों बोलूँ?

निर्मला मुसकरा पड़ी। बोली-जा देख, जल्दी आ। एक क्षण में दूंगी फिर खाली हाथ लौट आई। आलमारी में भी तो नहीं है। अब जहाँ बताओ, वहाँ देखूँ।

निर्मला झुंझलाकर यह कहती हुई उठ खड़ी हुई। तुझे ईश्वर ने आँखें ही न जाने किसलिए दी! देख, उसी कमरे में से लाती हूँ कि नहीं।

भूँगी भी पीछे-पीछे कमरे में गई। निर्मला ने ताक पर निगाह डाली, आलमारी खोलकर देखी। चारपाई के नीचे झाँककार देखा, फिर कपड़ों का बड़ा संदूक खोलकर देखा। बक्से का कहीं पता नहीं। आश्चर्य हुआ, आखिर बक्सा गया कहाँ?

सहसा रातवाली घटना बिजली की भाँति उसकी आँखों के सामने चमक गई। कलेजा उछल पड़ा। अब तक निश्चिंत होकर खोज रही थी। अब ताप-सा चढ़ आया। बड़ी उतावली से चारों ओर खोजने लगी। कहीं पता नहीं। जहाँ खोजना चाहिए था, वहाँ भी खोजा और जहाँ नहीं खोजना चाहिए था, वहाँ भी खोजा। इतना बड़ा संदूकचा बिछावन के नीचे कैसे छिप जाता? पर बिछावन भी झाड़कर देखा। क्षण-क्षण मुख की कांति मलिन होती जाती थी। प्राण नहों में समाते जाते थे। अंत में निराश होकर उसने छाती पर एक घुसा मारा और रोने लगी।

गहने ही स्त्री की संपत्ति होते हैं। पति की और किसी संपत्ति पर उसका अधिकार नहीं होता। इन्हीं का उसे बल