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और गौरव होता है। निर्मला के पास पाँच-छह हजार के गहने थे। जब उन्हें पहनकर वह निकलती थी तो उतनी देर के लिए उल्लास से उसका हृदय खिला रहता था। एक-एक गहना मानो विपत्ति और बाधा से बचाने के लिए एकएक रक्षास्त्र था। अभी रात ही उसने सोचा था, जियाराम की लौंडी बनकर वह न रहेगी। ईश्वर न करे कि वह किसी के सामने हाथ फैलाए। इसी खेवे से वह अपनी नाव को भी पार लगा देगी और अपनी बच्ची को भी किसी-न-किसी घाट पहुँचा देगी। उसे किस बात की चिंता है! उन्हें तो कोई उससे न छीन लेगा। आज ये मेरे सिंगार हैं, कल को मेरे आधार हो जाएंगे। इस विचार से उसके हृदय को कितनी सांत्वना मिली थी! वह संपत्ति आज उसके हाथ से निकल गईं। अब वह निराधार थी। संसार में उसे कोई अवलंब, कोई सहारा न था। उसकी आशाओं का आधार जड़ से कट गया, वह फूट-फूटकर रोने लगी। ईश्वर! तुमसे इतना भी न देखा गया? मुझ दुखिया को तुमने यों ही अपंग बना दिया था, अब आँखें भी फोड़ दीं। अब वह किसके सामने हाथ फैलाएगी, किसके द्वार पर भीख माँगेगी। पसीने से उसकी देह भीग गई, रोते-रोते आँखें सूज गईं। निर्मला सिर नीचा किए जा रही थी। रुक्मिणी उसे धीरज दिला रही थीं, लेकिन उसके आँसू न रुकते थे, शोक की ज्वाला कम न होती थी।

तीन बजे जियाराम स्कूल से लौटा। निर्मला उसके आने की खबर पाकर विक्षिप्त की भाँति उठी और उसके कमरे के द्वार पर आकर बोली-भैया, दिल्लगी की हो तो दे दो। दुखिया को सताकर क्या पाओगे?

जियाराम एक क्षण के लिए कातर हो उठा। चोर-कला में उसका यह पहला ही प्रयास था। वह कठोरता, जिससे हिंसा में मनोरंजन होता है, अभी तक उसे प्राप्त न हुई थी। यदि उसके पास संदूकचा होता और फिर इतना मौका मिलता कि उसे ताक पर रख आवे तो कदाचित् वह उस मौके को न छोड़ता, लेकिन संदूक उसके हाथ से निकल चुका था। यारों ने उसे सर्राफे में पहुंचा दिया था और औने-पौने बेच भी डाला था। चोरों की झूठ के सिवा और कौन रक्षा कर सकता है। बोला-भला अम्माँजी, मैं आपसे ऐसी दिल्लगी करूँगा? आप अभी तक मुझ पर शक करती जा रही हैं। मैं कह चुका कि मैं रात को घर पर न था, लेकिन आपको यकीन ही नहीं आता। बड़े दुःख की बात है कि मुझे आप इतना नीच समझती हैं।

निर्मला ने आँसू पोंछते हुए कहा-मैं तुम्हारे ऊपर शक नहीं करती भैया, तुम्हें चोरी नहीं लगाती। मैंने समझा, शायद दिल्लगी की हो।

जियाराम पर वह चोरी का संदेह कैसे कर सकती थी? दुनिया यही तो कहेगी कि लड़के की माँ मर गई है तो उस पर चोरी का इलजाम लगाया जा रहा है। मेरे मुँह पर ही तो कालिख लगेगी!

जियाराम ने आश्वासन देते हुए कहा—चलिए, मैं देखें, आखिर ले कौन गया? चोर आया किस रास्ते से?

भूँगी-भैया, तुम चोरों के आने को कहते हो। चूहे के बिल से तो निकल ही आते हैं, यहाँ तो चारों ओर ही खिड़कियाँ हैं।

जियाराम-खूब अच्छी तरह तलाश कर लिया है?

निर्मला-सारा घर तो छान मारा, अब कहाँ खोजने को कहते हो?

जियाराम-आप लोग सो भी तो जाती हैं मुर्दों से बाजी लगाकर।

चार बजे मुंशीजी घर आए तो निर्मला की दशा देखकर पूछा-कैसी तबीयत है? कहीं दर्द तो नहीं है? कह कहकर उन्होंने आशा को गोद में उठा लिया।

निर्मला कोई जवाब न दे सकी, फिर रोने लगी।

भूँगी ने कहा-ऐसा कभी नहीं हुआ था। मेरी सारी उम्र इसी घर में कट गई। आज तक एक पैसे की चोरी नहीं हुई। दुनिया यही कहेगी कि भूँगी का काम है, अब तो भगवान ही पत-पानी रखें।