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जियाराम-गवाही देगी न?

भूँगी-यह क्या कहते हो भैया? बहूजी तफ्तीश बंद कर देंगी।

जियाराम-सच?

भूँगी–हाँ भैया, बार-बार कहती हैं कि तफ्तीश न कराओ। गहने गए, जाने दो, पर बाबूजी मानते ही नहीं।

पाँच-छह दिन तक जियाराम ने पेट भर भोजन नहीं किया। कभी दो-चार कौर खा लेता, कभी कह देता, भूख नहीं है। उसके चेहरे का रंग उड़ा रहता था। रातें जागते कटती, प्रतिक्षण थानेदार की शंका बनी रहती थी। यदि वह जानता कि मामला इतना तूल खींचेगा तो कभी ऐसा काम न करता। उसने तो समझा था-किसी चोर पर शुबहा होगा। मेरी तरफ किसी का ध्यान भी न जाएगा, पर अब भांडा फूटता हुआ मालूम होता था। अभागा थानेदार जिस ढंग से छान-बीन कर रहा था, उससे जियाराम को बड़ी शंका हो रही थी।

सातवें दिन संध्या समय घर लौटा तो बहुत चिंतित था। आज तक उसे बचने की कुछ-न-कुछ आशा थी। माल अभी तक कहीं बरामद न हुआ था, पर आज उसे माल के बरामद होने की खबर मिल गई थी। इसी दम थानेदार कांस्टेबिल लिए आता होगा। बचने को कोई उपाय नहीं। थानेदार को रिश्वत देने से संभव है मुकदमे को दबा दे, रुपए हाथ में थे, पर क्या बात छिपी रहेगी? अभी माल बरामद नहीं हुआ, फिर भी सारे शहर में अफवाह थी कि बेटे ने ही माल उड़ाया है। माल मिल जाने पर तो गली-गली बात फैल जाएगी। फिर वह किसी को मुँह न दिखा सकेगा।

मुंशीजी कचहरी से लौटे तो बहुत घबराए हुए थे। सिर थामकर चारपाई पर बैठ गए।

निर्मला ने कहा-कपड़े क्यों नहीं उतारते? आज तो और दिनों से देर हो गई है।

मुंशीजी–क्या कपड़े ऊतारूँ? तुमने कुछ सुना?

निर्मला-क्या बात है? मैंने तो कुछ नहीं सुना?

मुंशीजी-माल बरामद हो गया। अब जिया का बचना मुश्किल है।

निर्मला को आश्चर्य नहीं हुआ। उसके चेहरे से ऐसा जान पड़ा, मानो उसे यह बात मालूम थी। बोली—मैं तो पहले ही कह रही थी कि थाने में इत्तला मत कीजिए।

मुंशीजी-तुम्हें जिया पर शक था? निर्मला शक क्यों नहीं था, मैंने उन्हें अपने कमरे से निकलते देखा था।

मुंशीजी-फिर तुमने मुझसे क्यों न कह दिया?

निर्मला—यह बात मेरे कहने की न थी। आपके दिल में जरूर खयाल आता कि यह ईर्ष्यावश आक्षेप लगा रही है। कहिए, यह खयाल होता या नहीं? झूठ न बोलिएगा।

मुंशीजी-संभव है, मैं इनकार नहीं कर सकता। फिर भी उस दशा में तुम्हें मुझसे कह देना चाहिए था। रिपोर्ट की नौबत न आती। तुमने अपनी नेकनामी की तो फिक्र की, पर यह न सोचा कि परिणाम क्या होगा? मैं अभी थाने में चला आता हूँ। अलायार खाँ आता ही होगा!

निर्मला ने हताश होकर पूछा-फिर अब?

मुंशीजी ने आकाश की ओर ताकते हुए कहा—फिर जैसी भगवान् की इच्छा। हजार-दो हजार रुपए रिश्वत देने के लिए होते तो शायद मामला दब जाता, पर मेरी हालत तो तुम जानती हो। तकदीर खोटी है और कुछ नहीं। पाप तो मैंने किया है, दंड कौन भोगेगा? एक लड़का था, उसकी वह दशा हुई, दूसरे की यह दशा हो रही है। नालायक था, गुस्ताख था, कामचोर था, पर था तो अपना ही लड़का, कभी-न-कभी चेत ही जाता। यह चोट अब न सही जाएगी।