पृष्ठ:निर्मला.pdf/९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

निर्मला अगर कुछ दे-दिलाकर जान बच सके तो मैं रुपए का प्रबंध कर दूँ।

मुंशीजी—कर सकती हो? कितने रुपए दे सकती हो?

निर्मला-कितना दरकार होगा?

मुंशीजी—एक हजार से कम पर तो शायद बातचीत न हो सके। मैंने एक मुकदमे में उससे एक हजार लिए थे। वह कसर आज निकालेगा।

निर्मला-हो जाएगा। अभी थाने जाइए।

मुंशीजी को थाने में बड़ी देर लगी। एकांत में बातचीत करने का बहुत देर में मौका मिला। अलायार खाँ पुराना घाघ था। बड़ी मुश्किल से अंटी पर चढ़ा। पाँच सौ रुपए लेकर भी अहसान का बोझा सिर पर लाद ही दिया। काम हो गया। लौटकर निर्मला से बोला—लो भाई, बाजी मार ली, रुपए तुमने दिए, पर काम मेरी जबान ही ने किया। बड़ी-बड़ी मुश्किलों से राजी हो गया। यह भी याद रहेगी। जियाराम भोजन कर चुका है?

निर्मला-कहाँ, वह तो अभी घूमकर लौटे ही नहीं।

मुंशीजी-बारह तो बज रहे होंगे।

निर्मला-कई दफे जा-जाकर देख आई। कमरे में अँधेरा पड़ा हुआ है।

मुंशीजी-और सियाराम?

निर्मला—वह तो खा-पीकर सोए हैं।

मुंशीजी-उससे पूछा नहीं, जिया कहाँ गया?

निर्मला—वह तो कहते हैं, मुझसे कुछ कहकर नहीं गए।

मुंशीजी को कुछ शंका हुई। सियाराम को जगाकर पूछा-तुमसे जियाराम ने कुछ कहा नहीं, कब तक लौटेगा? गया कहाँ है?

सियाराम ने सिर खुजलाते और आँखें मलते हुए कहा—मुझसे कुछ नहीं कहा।

मुंशीजी-कपड़े सब पहनकर गया है?

सियाराम-जी नहीं, कुर्ता और धोती।

मुंशीजी-जाते वक्त खुश था?

सियाराम-खुश तो नहीं मालूम होते थे। कई बार अंदर आने का इरादा किया, पर देहरी से ही लौट गए। कई मिनट तक सायबान में खड़े रहे। चलने लगे, तो आँखें पोंछ रहे थे। इधर कई दिन से अकसर रोया करते थे।

मुंशीजी ने ऐसी ठंडी साँस ली, मानो जीवन में अब कुछ नहीं रहा और निर्मला से बोले-तुमने किया तो अपनी समझ में भले ही के लिए, पर कोई शत्रु भी मुझ पर इससे कठोर आघात न कर सकता था। जियाराम की माता होती तो क्या वह यह संकोच करती? कदापि नहीं।

निर्मला बोली-जरा डॉक्टर साहब के यहाँ क्यों नहीं चले जाते? शायद वहाँ बैठे हों। कई लड़के रोज आते हैं, उनसे पूछिए, शायद कुछ पता लग जाए। फूँक-फूँककर चलने पर भी अपयश लग ही गया।

मुंशीजी ने मानो खुली हुई खिड़की से कहा-हाँ, जाता हूँ और क्या करूँगा।

मुंशीजी बाहर आए तो देखा, डॉक्टर सिन्हा खड़े हैं। चौंककर पूछा-क्या आप देर से खड़े हैं?

डॉक्टर–जी नहीं, अभी आया हूँ। आप इस वक्त कहाँ जा रहे हैं? साढ़े बारह हो गए हैं।

मुंशीजी-आप ही की तरफ आ रहा था। जियाराम अभी तक घूमकर नहीं आया। आपकी तरफ तो नहीं गया था?

डॉक्टर सिन्हा ने मुंशीजी के दोनों हाथ पकड़ लिए और इतना कह पाए थे, 'भाई साहब, अब धैर्य से काम...'