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नैषध-चरित-चर्चा

अथावदातं तदहो विडम्बना
यथातथा प्रेष्यतयोपसेदुषः ।

(सर्ग ९, श्लोक १०)
 

भावार्थ—यदि मेरा कुल प्रशस्त नहीं है, तो बुरी वस्तु का नाम कैसे लूँ ? और यदि है, तो अच्छे कुल में जन्म लेकर इस प्रकार दूतत्व करना मेरी विडंबना है । अतः उस विषय में चुप रहना ही अच्छा है । परंतु किसी तरह, बहुत सोच-संकोच के अनंतर, आपने "हिमांशुवंशस्य करीरमेव मां" कहकर अपने को चंद्रवंशी बतलाया। इतना बतलाकर, पुनर्वार दमयंती के द्वारा जब अपना नाम बतलाने के लिये नल अनुरुद्ध किए गए, तब आप कहने लगे—

महाजनाचारपरम्परेद्दशी
स्वनाम नामाददते न साधवः ;
अतोऽभिधातुं न तदुस्सहे पुन-
र्जनःकिलाचारमुचं विगायति ।

(सर्ग ९, श्लोक १३)
 

भावार्थ—सत्पुरुषों की यह रीति है कि वे अपने मुख से अपना नाम नहीं लेते। इसीलिये मैं भी तुमसे अपना नाम बतलाने का साहस नहीं कर सकता, क्योंकि सदाचार के प्रतिकूल व्यवहार करनेवाले की लोक में निंदा होती है।

इस पर दमयंती ने नल का फिर भी उपालंभ करना प्रारंभ किया । वह कहने लगी—"वाह, कुछ तो आप बतलाते हैं,