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नैषध-चरित-चर्चा

वृथा परीहास इति प्रगल्भता
न नेति च स्वादशि वाग्विगर्हणा;
भवत्यवज्ञा च भवत्यनुत्तरा-
दतः प्रदित्सुः प्रतिवाचमस्मि ते ।

(सर्ग ९, श्लोक २५)
 

भावार्थ—वृथा परिहास करते बैठना प्रगल्भता है; आपके सदृश महात्मा जनों से 'न-न' कहते रहना वाणी की विगर्हणा है; न बोलने से अवज्ञा होती है; अतएव उत्तर देने को मैं विवश हूँ।

उत्तर में दमयंती ने अपने साथ विवाह करने की इच्छा रखनेवाले देवतों को बहुत धन्यवाद देकर यह कहा कि मैं नल की हो चुकी हूँ। अतएव अब मेरी प्राप्ति के विषय में देवतों का प्रयत्न व्यर्थ है। दमयंती ने यहाँ तक कहा कि—

अपि दृढीयः शृणु मे प्रतिश्रुतं
स पीडयेत्पाणिमिमं न चेन्नृपः ।
हुताशनोद्वन्धनवारिवारिस
निजायुषस्तस्करवै स्ववैरिताम्।

(सर्ग ९, श्लोक ४५)
 

भावार्थ—मैं अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा आपसे कहती हूँ। यदि वह नरेश्वर नल मेरा कर-ग्रहण न करेगा, तो मैं अग्नि में प्रवेश करके, जल में डूबकर, अथवा गले में फाँसी लगाकर अपने इस दुष्ट आयुष्य के वैर से मुक्त हो जाऊँगी।