पृष्ठ:नैषध-चरित-चर्चा.djvu/१०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०७
श्रीहर्ष की कविता के नमूने

अमूनि गच्छन्ति युगानि न क्षणः
कियत्सहिष्ये न हि मृत्युरस्ति मे ;
स मां न कान्तः स्फुटमन्तरुज्झिता
न तं मनस्तच न कायवायवः ।

(सर्ग ९, श्लोक ९४)
 

भावार्थ—इस समय मेरा एक-एक क्षण एक-एक युग के समान जा रहा है। कहाँ तक सहन करूँ ! मुझे मत्यु भी नहीं आती। मेरा प्रियतम मेरे अंतःकरण को नहीं छोड़ता, और मेरा प्राण मेरे मन को नहीं छोड़ता। हाय-हाय ! अपार दुःख परंपरा है !

कथावशेषं तव सा कृते गते-
त्यपैयति श्रोत्रपथं कथं न ते?
बयाणुना मां समनुग्रहीष्यसे
तदापि तावदि नाथ ! नाधुना ।

(सर्ग ९, श्लोक ९९ )
 

भावार्थ—हे प्रियतम ! तुम्हारे लिये दमयंती कथावशेष हो गई—पंचत्व को प्राप्त हो गई—यह तुम पीछे से क्या न सुनोगे ? जरूर सुनोगे। अतः हे नाथ ! यदि इस समय मुझ पर तुमको दया नहीं आती, तो उस अमंगल संवाद को सुनने पर तो अपनी दया के दो-एक कणों से मुझे अनुगृहीत करना। अर्थात् मेरे मरने पर भी मेरा स्मरण यदि तुमको आ जायगा, तो भी मुझ पर तुम्हारा महान् अनुग्रह होगा।