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नैषध-चरित-चर्चा

सुराज्ञि तौ तन्त्र विदर्भमण्डले
ततो निबद्धौ किमु कर्कशैः कुशैः ?

(सर्ग १६, श्लोक १३)
 

भावार्थ—वर के हाथ ने परघात करना कौतुक समझा है, और वधू के हाथ ने कमल की कांति चुराई है। क्या इसीलिये वधू और वर दोनो के हाथ कर्कश कुशों से बाँधे गए हैं ? विदर्भ-मंडल में सुराज्य है, अर्थात् विदर्भाधिप धर्मा- नुसार प्रजा-पालन करते हैं। अतएव उनके देश में चोर और पर-प्राण-नाशक लोगों के अवश्य ही हथकड़ी पड़नी चाहिए!

'पर' का अर्थ 'और' भी है, तथा 'शत्रु' भी है । नल के लिये 'पर' से 'शत्रु' का अर्थ-ग्रहण करके पर-हिंसाजात अनिष्टापत्ति का वारण करना चाहिए । शत्रुओं को मारना राजों का धर्म ही है। इस कारण उस अर्थ से कोई हानि नहीं । तथापि, वर के हाथ में कुशबंधन-रूपी हथकड़ी डालने के समर्थनार्थ, शब्दच्छल से, 'पर' का अर्थ 'और' भी लेना पड़ता है। तात्पर्य यह कि पहले तो श्लेषमूलक विरोध का आभास बोध होता है, फिर उसका परिहार हो जाता है।

ऊपर दिए गए श्लोक के आगे, दूसरे श्लोक में, श्रीहर्षजी ने कैसा विनोद किया है, सो देखिए—

विदर्भजायाः करवारिजेन य-
अलस्य पाणेरुपरि स्थितं किल ।