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नैषध-चरित-चर्चा

रही, उसी प्रकार नैषध में क्लिष्टता और अस्वाभाविकता आदि दोष होने पर भी जो अनेक अद्भुत-अद्भुत श्लोक हैं, उनको उद्धृत करने की हमारी इच्छा बनी ही है । तथापि यह लेख बहुत बढ़ गया। अतएव, विवश होकर, उस इच्छा को पूर्ण सफल करने से हमें विरत होना पड़ता है।

यह काव्य शृंगार-रस-प्रधान है । अतएव उस रस के अनुकूल एक आशीर्वादात्मक पद्य नैषध से उद्धृत करके इस निबंध को हम समाप्त करते हैं । ऊपर जा श्लोक दिया गया है, उसी के आगे स्वयंवरस्थ राजा लोगों को संबोधन करके सरस्वती कहती है—

लोकेशकेशवशिवानपि यश्चकार
शृंगारसान्तरभृशान्तरशान्तभावान् ।
पञ्चेन्द्रियाणि जगतामिषुपम्चकेन
संक्षोभयन् वितनुतां वितनुर्मुदं वः ।

(सर्ग ११, श्लोक २५)
 

भावार्थ—ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि के भी शांतभाव को जिसने श्रृंगारिक भावों से जजर कर दिया है ; और अपने पाँवो बाणों से जिसने सांसारिक जनों को पाँचो इंद्रियों को क्षुब्ध किया है—ऐसा वह भगवान पंचशायक आपको प्रमुदित करे !

ऊपर कई एक सानुप्रास पद्य उद्धृत हो चुके हैं । इस श्लोक से भी श्रीहर्षजी के अनुप्रास-कौशल की छटा झलक रही है।

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