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श्रीहर्ष-विषयक कुछ बातें

काश्मीरदेशीय विद्वानों ने जिस महाकाव्य की पूजा की है, उस नैषध-चरित का सोलहवाँ सर्ग समाप्त हुआ।

किसी-किसी पंडित के मुख से हमने यह भी सुना है कि काव्यप्रकाश के बनानेवाले प्रसिद्ध आलंकारिक मम्मट भट्ट श्रीहर्ष के मामा थे। इस संबंध में एक श्रुजनति भी है। इसे पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने अपने एक निबंध में स्थान भी दिया है। कौतुकावह होने के कारण हम भी उसे नीचे[१] फुट नोट में लिखते हैं।


  1. कहते हैं, नैषध-चरित की रचना करके श्रीहर्ष ने उसे अपने मामा मम्मट भट्ट को दिखलाया। मम्मट भट्ट ने उसे साद्यंत पढ़कर श्रीहर्ष से खेद प्रकाशित किया और कहा कि यदि तुम इस काव्य को लिखकर कुछ पहले हमें दिखाते, तो हमारा बहुत कुछ परिश्रम बीच जाता। काव्यप्रकाश के सप्तमोल्लास में दोषों के उदाहरण देने के लिये नाना ग्रंथों से जो हमने दूषित पद्य संग्रह किए हैं, उसमें हमको बहुत परिश्रम और बहुत खोज करनी पड़ी है। यदि तुम्हारा नैषध-चरित उस समय हमारे हाथ लग जाता, तो हमारा प्रायः सारा परिश्रम बच जाता। क्योंकि अकेले इसी में सब दोषों के उदाहरण भरे हुए हैं। श्रीहर्ष ने पूछा, दो-एक दोष बतलाइए तो सही। इस पर मम्मट भट्ट ने द्विताय सर्ग का बासठवाँ श्लोक पढ़ दिया। इस श्लोक का प्रथम चरण यह है—"तव वर्त्मनि वर्तंतां शिवं" जिसका अर्थ है 'तुम्हारी यात्रा कल्याणकारिणी हो।' परंतु इसी चरण का पदच्छेद दूसरे प्रकार से करने पर उलटा अर्थ निकलता है—"तव वर्त्म निवर्ततां शिवं" अर्थात् 'तुम्हारी यात्रा अकल्याणकारिणी हो।' यह वाक्य दमयंती के पास जाने को प्रस्तुत हंस से नल ने कहा है।