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श्रीहर्ष की कविता के नमूने

सकती है ? अर्थात् इस प्रकार की दुष्प्राप्य अभिलाषा कोई भी कन्या अपने मुख से नहीं व्यक्त कर सकती । यह श्लोक श्लेष-युक्त है। इसमें दमयंती ने श्लेषचातुरी से नल के द्वारा अपने पाणिग्रहण होने की अभिलाषा प्रकट करके उसका दुष्प्राप्यत्व सूचित किया है।

संयोग के अनंतर जब वियोग होता है, तभी वह अधिक दुःसह होता है। यही व्यापक नियम है। परंतु श्रीहर्षजी को विप्रर्लभ-श्रृंगार वर्णन करना था। इस कारण उस नियम की ओर उन्होंने दृक्पात नहीं किया । हंस के मुख से नल का वृत्तांत सुनकर उन्होंने दमयंती का अनुराग इतना बढ़ाया है, जिसका ठिकाना नहीं । नल के गुणों का चिंतन करके, तथा उसके स्वरूपादि की भावना करके, दमयंती को असह्य वेदनाएँ होने लगीं। ऐसी दशा में उसने चंद्रमा और काम का अतिशय उपालंभ किया है । उपालंभ के पहले, दमयंती के ही मुख से उसके विरह की भीषणता का हाल सुनिए—

जनुरधत्त सती स्मरतापिता
हिमवतो न तु तन्महिमाता;
ज्वलति भाबत लिखितः सती-
विरह एव हरस्य न लोचनम् ।

(सर्ग ४, श्लोक ४५)
 

भावार्थ—पूर्व जन्म में शंकर के विरह ही से अत्यंत संतप्त होकर सती ने हिमवान् (बर्फ़ धारण करनेवाले हिमालय)