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मजबूर होता है कि आत्मा को क्लेश देनेवाले संकट को ड्रामे के रूप में प्रगट करे। इसी लिए नाटक समाज के जीवन का दर्पन है जिसमें संघर्ष की सूरतें दिखाई देती हैं। उन्नीस्वीं सदी में मनुष्य का मान इस बात को नहीं सह सकता था कि उसके पैर पुरानी बेड़ियों से जकड़े रहें। अपने गौरव का नया अनुभव उसे आज़ादी और समता की नई राहों पर चलाता है और उसके मन में नई रस्मों, नये रिवाजों और जीवन के नये ढंगों की इच्छा पैदा होती है। इन्हीं की छाया उसके ड्रामे में नजर आती है।

हिन्दोस्तान के हृदय में भी आज कुछ ऐसे ही विचार और भाव हिलोरें ले रहे हैं। हमारे जीवन में भी एक अद्भुत हलचल है जो योरुप की उन्नीस्वीं सदी के परिवर्तन से कहीं अधिक है। यहां भी नये और पुराने युग के संघर्ष ने भयानक रूप धारण किया है। इस खींचतान का असर रीति, रिवाज पर, धर्म पर, समाज पर, यहां तक कि जीवन के सभी अंगों पर दिखाई पड़ता है। यह मुमकिन है कि इससे दिलों में उमंग, लहू में जोश पैदा न हो, और भावुक लेखकों के तड़पते दिल आत्मा की बेकली को प्रगट करने के लिए नाटक को अपना साधन न बनाएँ।