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[पञ्चतन्त्र
 


वर्धमान का रथ जब यमुना के किनारे पहुँचा तो संजीवक नाम का बैल नदी-तट की दलदल में फँस गया। वहाँ से निकलने की चेष्टा में उसका एक पैर भी टूट गया। वर्धमान को यह देख कर बड़ा दुःख हुआ। तीन रात उसने बैल के स्वस्थ होने की प्रतीक्षा की। बाद में उसके सारथि ने कहा कि "इस वन में अनेक हिंसक जन्तु रहते हैं। यहाँ उनसे बचाव का कोई उपाय नहीं है। संजीवक के अच्छा होने में बहुत दिन लग जायंगे। इतने दिन यहाँ रहकर प्राणों का संकट नहीं उठाया जा सकता। इस बैल के लिये अपने जीवन को मृत्यु के मुख में क्यों डालते हैं?"

तब वर्धमान ने संजीवक की रखवाली के लिए रक्षक रखकर आगे प्रस्थान किया। रक्षकों ने भी जब देखा कि जंगल अनेक शेर-बाघ-चीतों से भरा पड़ा है तो वे भी दो-एक दिन बाद ही वहाँ से प्राण बचाकर भागे और वर्धमान के सामने यह झूठ बोल दिया "स्वामी! संजीवक तो मर गया। हमने उसका दाह-संस्कार कर दिया।" वर्धमान यह सुनकर बड़ा दुःखी हुआ, किन्तु अब कोई उपाय न था।

इधर, संजीवक यमुना-तट की शीतल वायु के सेवन से कुछ स्वस्थ हो गया था। किनारे की दूब का अग्रभाग पशुओं के लिये बहुत बलदायी होता है। उसे निरन्तर खाने के बाद वह खूब मांसल और हृष्ट-पुष्ट भी हो गया। दिन भर नदी के किनारों को सींगों से पाटना और मदमत्त होकर गरजते हुए किनारों की झाड़ियों में सींग उलझाकर खेलना ही उसका काम था।