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मित्रभेद]
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आया हूँ। इसीलिये मुझे देर हो गई। आगे स्वामी की जो इच्छा हो, करें।"

यह सुनकर भासुरक बोला—"ऐसा ही है तो जल्दी से मुझे उस दूसरे शेर के पास ले चल। आज मैं उसका रक्त पीकर ही अपनी भूख मिटाऊँगा। इस जंगल में मैं किसी दूसरे का हस्तक्षेप पसन्द नहीं करता।"

खरगोश—"स्वामी! यह तो सच है कि अपने स्वत्व के लिये युद्ध करना आप जैसे शूरवीरों का धर्म है, किन्तु दूसरा शेर अपने दुर्ग में बैठा है। दुर्ग से बाहिर आकर ही उसने हमारा रास्ता रोका था। दुर्ग में रहने वाले शत्रु पर विजय पाना बड़ा कठिन होता है। दुर्ग में बैठा एक शत्रु सौ शत्रु के बराबर माना जाता है। दुर्गहीन राजा दन्तहीन साँप और मदहीन हाथी की तरह कमज़ोर हो जाता है।"

भासुरक—"तेरी बात ठीक है, किन्तु मैं उस दुर्गस्थ शेर को भी मार डालूँगा। शत्रु को जितनी जल्दी हो नष्ट कर देना चाहिये। मुझे अपने बल पर पूरा भरोसा है। शीघ्र ही उसका नाश न किया गया तो वह बाद में असाध्य रोग की तरह प्रबल हो जायगा।"

खरगोश—"यदि स्वामी का यही निर्णय है तो आप मेरे साथ चलिये।"

यह कहकर खरगोश भासुरक शेर को उसी कुएँ के पास ले