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[पञ्चतन्त्र
 

संजीवक से प्रगाढ़ स्नेह है, संजीवक ने इसे वश में कर रखा है, जो राजा इस तरह मन्त्री के वश में हो जाता है वह नष्ट हो जाता है।' यह सोचकर उसने पिङ्गलक के मन से संजीवक का जादू मिटाने का निश्चय और भी पक्का कर लिया।

पिङ्गलक ने थोड़ा होश में आकर किसी तरह धैर्य धारण करते हुए कहा—"दमनक! संजीवक तो हमारा बहुत ही विश्वासपात्र नौकर है। उसके मन में मेरे लिये बैर भावना नहीं हो सकती।"

दमनक—"स्वामी! आज जो विश्वास-पात्र है, वही कल विश्वास घातक बन जाता है। राज्य का लोभ किसी के भी मन को चंचल बना सकता है। इसमें अनहोनी कोई बात नहीं।"

पिङ्गलक—"दमनक! फिर भी मेरे मन में संजीवक के लिये द्वेष-भावना नहीं उठती। अनेक दोष होने पर भी प्रियजनों को छोड़ा नहीं जाता। जो प्रिय है, वह प्रिय ही रहता है।"

दमनक—"यही तो राज्य-संचालन के लिए बुरा है। जिसे भी आप स्नेह का पात्र बनायेंगे वही आपका प्रिय हो जाएगा। इसमें संजीवक की कोई विशेषता नहीं। विशेषता तो आपकी है। आपने उसे अपना प्रिय बना लिया तो वह बन गया। अन्यथा उसमें गुण ही कौन-सा है? यदि आप यह समझते हैं कि उसका शरीर बहुत भारी है, और वह शत्रु-संहार में सहायक होगा, तो यह आपकी भूल है। वह तो घास-पात खाने वाला जीव है। आपके शत्रु तो सभी मांसाहारी हैं। अतः उसकी सहायता से