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मित्रभेद]
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का परित्याग करना ही अच्छा है।"

संजीवक—"दूर जाकर भी अब छुटकारा नहीं है। बड़े लोगों से शत्रुता लेकर कोई कहीं शान्ति से नहीं बैठ सकता। अब तो युद्ध करना ही ठीक जँचता है। युद्ध में एक बार ही मौत मिलती है, किन्तु शत्रु से डर कर भागने वाला तो प्रतिक्षण चिन्तित रहता है। उस चिन्ता से एक बार की मृत्यु कहीं अच्छी है।"

दमनक ने जब संजीवक को युद्ध के लिये तैयार देखा तो वह सोचने लगा, कहीं ऐसा न हो कि यह अपने पैने सींगों से स्वामी पिंगलक का पेट फाड़ दे। ऐसा हो गया तो महान् अनर्थ हो जायगा। इसलिये वह फिर संजीवक को देश छोड़ कर जाने की प्रेरणा करता हुआ बोला—"मित्र! तुम्हारा कहना भी सच है। किन्तु, स्वामी और नौकर के युद्ध से क्या लाभ? विपक्षी बलवान् हो तो क्रोध को पी जाना ही बुद्धिमत्ता है। बलवान् से लड़ना अच्छा नहीं। अन्यथा उसकी वही गति होती है जो समुद्र से लड़ने वाली टिटिहरी की हुई थी।"

संजीवक ने पूछा—"कैसे?"

दमनक ने तब मूर्ख टिटिहरी की यह कथा सुनाई—